Wednesday, 28 October 2015

Lado chali gayee

लाडो चली गयी  …

लाडो, क्यों चली गयी, सरहद दे पार
ढूंढदी फिरां ओनु माँ, गली बाजार।
बिस्तर ते गुड्डा, कल्ला ही सोंदा वे
रातां नु माता रोंदी, रहंदी निहार।
ओना दा गुड्डा घर, सूखे नयन रौंदा
अम्मी बहांदी नै, असुअन दी धार।
बिखरे पये नै कुड़ी, वेख तेरे केश वे
नेड़े तू आ जा साडे, देवां संवार।
कित्थे छुपी वे लाडो, रो रो के मैया
हाथां विच कंघा ले, करदी पुकार।
पहला निवाला, केड़े मुह विच पावां
कल्ले उतरदा नईयों, गले हेठार।
खा लित्ते किताबां नु, झिंगुर पढ़ पढ़
कुर्ती रखी वै माँ, सन्दुक विच संभाल।
ओनु पता वी नहीं, कि होंदी सरहद?
खेलत खेलत दिती, कदम उतार।
कैसे पठावां ओनु, आवण दा कागज
कित्थे वै डेरा ओदा? कौण सरकार?

लाडो, क्यों चली गयी, सरहद दे पार

(C ) एस० डी०  तिवारी

लाडो क्यों चली गयी   …

लाडो क्यों चली गयी, सरहद के पार
ढूंढती फिरे है माई, गली बाजार।
बिस्तर पर गुड्डा, अकेला ही सोता
रातों को माता रोती, रहती निहार।
लाडो का गुड्डा घर, सूखे नयन रोता
अम्मी बहाती रोज, असुअन की धार।
बिखरे पड़े हैं,  गुड़िया रे केश तेरे
पास तू आ जा मेरे, दे दूँ संवार।
कहाँ छुपी तू लाडो, रो रो के मैया
हाथ में कंघा ले के, करती पुकार।
पहला निवाला, किसके मुंह में डालूँ
उतर नहीं पाता अकेले गले हेठार।
खा गए किताबें सारीं, झिंगुर पढ़ पढ़
कुर्ती रखी माँ ने, सन्दुक में संभाल।
उसको पता नहीं, क्या होती सरहद?
खेल खेल में उसने दी, कदम उतार।
कैसे पठाउं उसे, आने के कागज


कहाँ है डेरा उसका ? कौन सरकार?

(C ) एस० डी०  तिवारी 

Friday, 16 October 2015

Ganv me jiye



गांव में जिये
अभाव में जिये, मगर भाव में जिये,
जितना मिला, उसी में ताव में जिये।
गांव में जिये।
गगन, पवन, सूरज, और चाँद-सितारे,
खूब मिले, दिल खोल के मिले सारे,
खिली धूप, बादलों की छाँव में जिये।
गांव में जिये।
बाग़ बगीचा, खेत और खलिहान,
खगों के कलरव में गूंजता विहान,
कोयल की कू, काग की कांव में जिए।
गांव में जिये।
हरी धरती, हँसते फूल गमकीन,
उड़ती तितलियों के पंख रंगीन,
बसंत के पसरे हुए पांव में जिए।
गांव में जिये।
बूंदों की रुनझुन, नदी की कलकल,
खिसकती खटिया, टपकती छत,
बारिश के पानी के जमाव में जिये।
गांव में जिये।
गर्मी में झलते बेना, पोंछते स्वेद,
सर्दियों में मखमली धूप की सेंक,
निष्कपट, निर्मल स्वभाव में जिये।
गांव में जिये।
हाथों तोड़े अमरुद, आम फले, 
पगडंडियों पर कोसों पैदल चले,
प्रकृति की सुहानी ठाँव में जिए।
गांव में जिये।
संबंधों की मिठास का करते जतन,
अपनों के वास्ते लुटा दिए तन मन,
रूठे कभी तो मान मनाव में जिये।
गांव में जिये।
सादगी व सरल आव भाव में जिये
बहुत स्वछन्द अपने गाँव में जिये।
अभाव में जिये, मगर भाव में जिये।
गांव में जिये। 

एस० डी० तिवारी