तनिक बता ऐ कविता मेरी, चली तुम कहाँ से आई हो!
मन में मेरे हलचल मचाकर, चिंतन मेरी बढ़ायी हो।
सोई थी तुम हृदय में मेरे, निकल पन्नों पर छाई हो।
चिंतन का मंथन कराके, ज्यों छेड़ी कोई लड़ाई हो।
मेरे मन की खिड़कियां खोल, अन्तः प्रकाश ले आई हो।
दृष्टि को दूरबीन थमाकर, नीलाम्बर तक दौड़ाई हो।
हृदय में मेरे घुल मिल कर, परम आनंद ले आई हो।
कभी विकल कर कष्ट बढ़ा, मन की व्यथा जगाई हो।
कभी चुलबुलेपन से अपनी, सबके मन को लुभाई हो।
कभी तो चुटकुलेपन से तुम, सबको बहुत हंसाई हो।
कभी मनोरंजन बन जाती, सखी तो कभी तन्हाई हो।
कभी तुम तो नींद चुराती, कभी होती अंगड़ाई हो।
कभी झरना सी बहने लगती, कंकड़ से रुक जाती हो।
कभी बिखरी मोती होती, तो शब्दों में गूँथ जाती हो।
प्रेम योग और वियोग की, तुम तो कथा सुनाती हो।
विरहन की जिह्वा पर बैठी, विरह गीत भी गाती हो।
कभी कभी करुणा में डूबी, रोकर अश्रु बहाई हो।
कभी दिलों के मधुर मिलन पर, बजती हुई शहनाई हो।
पतितों के पापों को देख, रौद्र बहुत हो जाती हो।
क्रोध में धरके रूप भयानक, सबको फटकार लगाई हो।
युद्ध, तूफान, प्रलय में तुम, डरी न तनिक घबराई हो।
वीभत्सता देखी खुले चक्षु से, श्रृंगार करके इतराई हो।
कविता! तुम तो दर्पण बनकर, हमें प्रतिबिम्ब दिखाई हो।
कभी दशा देख समाज की, स्वयं अपने ही लजाई हो।
देव-वाणी भी बन जाती, तुम राम कभी कन्हाई हो।
बता तनिक ऐ कविता मेरी, चली तुम कहाँ से आई हो!
एस० डी० तिवारी
नहीं भूल पायेगी कविता मेरी।
मुझको बुलाएगी कविता मेरी।
जाएँगी बहारें, मुरझाएंगे फूल
पर मर नहीं पायेगी कविता मेरी।
बातें बहुत सी हम कह ना पाए
चुपके कह जाएगी कविता मेरी।
सूख जाएगी नदी बारिश के बाद
बहती रह जाएगी कविता मेरी।
थी दिल में जगी मेरे प्रीत कभी
जहाँ से कह जाएगी कविता मेरी।
उदास होगा, होकर तनहा कोई
साथ निभा जाएगी कविता मेरी।
ठहरे मन, कम पानी के कंकड़ सा
संग बहा ले जाएगी कविता मेरी।
गहराई से डर के, जो बैठे किनारे
उन्हें भी डूबाएगी कविता मेरी।
मैं रहूँ ना रहूँ मगर कोई तो होगी
जो गुनगुनायेगी कविता मेरी।
एस० डी० तिवारी
सोई थी तुम हृदय में मेरे, निकल पन्नों पर छाई हो।
चिंतन का मंथन कराके, ज्यों छेड़ी कोई लड़ाई हो।
मेरे मन की खिड़कियां खोल, अन्तः प्रकाश ले आई हो।
दृष्टि को दूरबीन थमाकर, नीलाम्बर तक दौड़ाई हो।
हृदय में मेरे घुल मिल कर, परम आनंद ले आई हो।
कभी विकल कर कष्ट बढ़ा, मन की व्यथा जगाई हो।
कभी चुलबुलेपन से अपनी, सबके मन को लुभाई हो।
कभी तो चुटकुलेपन से तुम, सबको बहुत हंसाई हो।
कभी मनोरंजन बन जाती, सखी तो कभी तन्हाई हो।
कभी तुम तो नींद चुराती, कभी होती अंगड़ाई हो।
कभी झरना सी बहने लगती, कंकड़ से रुक जाती हो।
कभी बिखरी मोती होती, तो शब्दों में गूँथ जाती हो।
प्रेम योग और वियोग की, तुम तो कथा सुनाती हो।
विरहन की जिह्वा पर बैठी, विरह गीत भी गाती हो।
कभी कभी करुणा में डूबी, रोकर अश्रु बहाई हो।
कभी दिलों के मधुर मिलन पर, बजती हुई शहनाई हो।
पतितों के पापों को देख, रौद्र बहुत हो जाती हो।
क्रोध में धरके रूप भयानक, सबको फटकार लगाई हो।
युद्ध, तूफान, प्रलय में तुम, डरी न तनिक घबराई हो।
वीभत्सता देखी खुले चक्षु से, श्रृंगार करके इतराई हो।
कविता! तुम तो दर्पण बनकर, हमें प्रतिबिम्ब दिखाई हो।
कभी दशा देख समाज की, स्वयं अपने ही लजाई हो।
देव-वाणी भी बन जाती, तुम राम कभी कन्हाई हो।
बता तनिक ऐ कविता मेरी, चली तुम कहाँ से आई हो!
एस० डी० तिवारी
नहीं भूल पायेगी कविता मेरी।
मुझको बुलाएगी कविता मेरी।
जाएँगी बहारें, मुरझाएंगे फूल
पर मर नहीं पायेगी कविता मेरी।
बातें बहुत सी हम कह ना पाए
चुपके कह जाएगी कविता मेरी।
सूख जाएगी नदी बारिश के बाद
बहती रह जाएगी कविता मेरी।
थी दिल में जगी मेरे प्रीत कभी
जहाँ से कह जाएगी कविता मेरी।
उदास होगा, होकर तनहा कोई
साथ निभा जाएगी कविता मेरी।
ठहरे मन, कम पानी के कंकड़ सा
संग बहा ले जाएगी कविता मेरी।
गहराई से डर के, जो बैठे किनारे
उन्हें भी डूबाएगी कविता मेरी।
मैं रहूँ ना रहूँ मगर कोई तो होगी
जो गुनगुनायेगी कविता मेरी।
एस० डी० तिवारी
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