माँ के आँचल में ममता की, छाँव हुआ करती है।
निश्छल आश्रय जन्नत सा, ठाँव
हुआ करती है।
जीने की अमिय सुधा, होती, माँ के आंचल में ही,
हर मुश्किल पार
लगाने की, नाव
हुआ करती है।
- एस० डी० तिवारी
भाव भरे मन ये, कविता जनने को, व्याकुल हर बार हुआ।
" मैं रीझ गया भावों पर, मुझको कविता से प्यार हुआ
।"
शब्दों के फूल किया अर्पण, सपना मेरा साकार हुआ
कविता की खातिर फिर तो, जीवन अपना न्यौछार हुआ।
सच्चाई के पथ पर चलना, है कोई आसान नहीं।
अधर्म कर लाभ उठाना, प्रभु का तो वरदान नहीं।
धर्म, नियम, संयम अपनाये, औरों का न लूट खाये,
दीपशिखा सा जलनेवाला, अब कोई इंसान नहीं।
२
सिंहासन का लोभ सभी को, कर्तव्यों का भान नहीं।
जन हित की सोच रखे, महान अशोक सामान नहीं।
जन प्रतिनिधि को रहती अब, अपने कुल की चिंता,
दीपशिखा सा जलनेवाला, अब कोई इंसान नहीं।
आजादी का संघर्ष टिका था, बापू के खादी पर।
दाग लगाते
नेता देखे अब बापू के खादी पर
।
श्वेत खादी
का चोला पहने, खाकी को साथ मिला,
काली करतूत करते, कालिख पोतें खादी पर
।
सभी अब फेस बुक करते, बतियाते
नहीं यारो।
व्यक्तिगत
तौर, परस्पर
मिल पाते नहीं
यारो।
कभी तो
भाव का होता,
कभी समय
का अभाव
कबूतर प्रेम
के उड़ते
, नजर आते नहीं
यारों।
दी है सब कुछ, बनकर माँ, न हो अपकार वसुधा का।
करो तुम ध्यान होता तन, अविरल उघार वसुधा
का।
गिराओ यूँ न हरे तुम पेड़, करो ना विदीर्ण पर्वत को;
खिलाकर के
सुमन अनुपम, करो श्रृंगार वसुधा
का।
आदमी है कि वो आगे क्या बढ़ जाता है,
अवकात के साथ अपनों को भूल जाता है।
घडी का बड़ा सुआ साठ गुना गति रखता,
मगर छोटी से हर घंटे गले मिल जाता है।
ब्राह्मण
स्वयं दरिद्र होकर भी, समाज को ऊँचा रखता रहा।
पूजा पाठ और दान पाकर, जीवन यापन करता रहा।
अनेकों विरोध
और त्रासदियां झेल कर भी ब्राह्मण,
नीतिगत शिक्षा प्रदान और चरित्र निर्माण करता रहा।
समाज को कर्म, पूजा-पाठ की विधि सिखाया ब्राह्मण।
वेद, पुराण, ग्रंथों को कंठस्थ
कर के बचाया ब्राह्मण।
धर्म, संस्कृति और संस्कारों को रखे हुए है जीवित
धर्म का उत्थान
कर, ईश्वर में आस्था जगाया ब्राह्मण।
जन धन को लूटने के, होते कई प्रकार।
कोई लूट के घर भरे, कोई ख्याति प्रचार।
कोई ख्याति प्रचार, रिझाय मीडिया ऐसे।
विज्ञापन के द्वार, पहुँचाय उनको पैसे।
होते रूप हजार, करन के भ्रष्ट आचरण।
कुछ की स्वार्थ सिद्धि, साधन वंचित आम जन।
दाल व सब्जी के भाव, चढ़े चले आकाश।
आम आदमी है विवश, करने को उपवास।
करने को उपवास, कीमतें हुईं यूरोपी।
आय अब भी देशी, खाय क्या नमक सु रोटी?
मंहगाई की मार, होती जनता बेहाल।
कैसे पाले बच्चे, खाये सब्जी और दाल?
स्विस बैंक में खाता क्यों, रखें भारतवासी।
बसेंगे जाकर विदेश, होकर के प्रवासी।
होकर के प्रवासी, कहीं जब फंसे देश में।
काली कमाई तब, मौज देगी विदेश में।
पतंग के जैसे वे, उड़ायेंगे डॉलर फ्रैंक।
बरसायेगा वहां, कृपा कुबेर स्विस बैंक।
हे
राम ! रावण का अमृत छीन लिया होता।
सुखाने की बजाय स्वयं ही पी लिया होता।
आज
रावण के वंशज का विकास न होता,
राम-राज्य का ही जल रहा दिव्य दीप होता।
चीलम भरते थे कभी, अब भर रहे गिलास।
हुक्का बुझा काका का, बोतल आई रास।
बोतल आई रास, खुलती हरेक दिन शाम।
चौधरी काका अब, पीकर पाते आराम।
बदला समय के संग, अब चौपाल का सिस्टम।
पुरातत्व की वस्तु, बन चुके हुक्का चीलम।
बंधु, सेवक, दीन पर, दया जो दिखलाता है।
अपने वंश की चमक को और चमकाता है।
जिसके जीवन से औरों को भी लाभ मिले;
सफल जीवन उसी मनुष्य का कहलाता है।
फूलों पर मडराने के लिए नाम दिया
जाता है।
भौरों को अनायास ही बदनाम किया
जाता है।
उनके बिना पराग को पराग से कौन
मिलाता?
प्रेम के नेक काम को नाकाम किया जाता है।
अपना घर, रौशनी में भी नहीं देख पाते।
दूसरों के घर अँधेरे में भी झांक आते।
दूसरी पार्टियों की दागदार चादरों से नेता,
अपनी चादर के दाग, ढांपकर हैं छुपाते।
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सच्चाई के पथ पर चलना, है कोई आसान नहीं।
अधर्म कर के लाभ उठाना, प्रभु का वरदान नहीं।
धर्म, नियम, संयम अपनाये, औरों को लूट न खाये,
दीपशिखा सा जलनेवाला, अब कोई इंसान नहीं।
वो फिर से प्यार जताने आ गये हैं ।
अपनी बड़ाई को दिखाने आ गये हैं।
पड़ गयी उनको जब जरूरत हमारी,
जख्म पर मरहम लगाने आ गये हैं।
भगवान उठा ले इंसान गुस्से में बोलता है।
यमदूत आएं तो छुपने की जगह टटोलता है।
खुद को जिन्दा रखने को जान भी लेनी हो
अपने सगों तक के लिए जहर घोलता है।
ऊँचा उड़ने वाला, अपने उड़ने पर इतराता है।
मगर कभी ऐसा भी होता, वह नीचे गिर जाता है।
जमीन पर रहने वाले को, गिरने की जगह न होती।
इसलिए वह गिर जाने से, कभी नहीं घबराता है।
पानी बह जाता है जब, मेड टूट जाती है।
गुप्त नहीं रख पाने से, बात फुट जाती है।
चुगली किया और अपशब्दों को बोला तो;
पुरानी से पुरानी मुहब्बत टूट जाती है।
बंधु, सेवक, दीन पर, दया जो दिखलाता है।
अपने वंश की चमक को और चमकाता है।
जिसके जीवन से औरों को भी लाभ मिले;
सफल जीवन उसी मनुष्य का कहलाता है।
अभिमान वश जो श्रेष्ठ के पास नहीं जाता है।
वह अनेक विधाओं से वंचित रह जाता है।
राज्य का आश्रय पा जाते विद्वान, कलाकार
उनके हुनर का समुचित मोल मिल पाता है।
ठूंठ पेड़ के नीचे छाँव ढूंढने से क्या हासिल।
मरुस्थल भूमि में जल ढूंढने से क्या हासिल।
कृपण से दान की उम्मीद, है रखना बेकार;
निर्दयी के दिल में प्यार ढूंढने से क्या हासिल।
शिव के घर में भी, परिजनों का अजब स्वरुप।
सर्प, खाकर गणेश का चूहा, मिटाना चाहे भूख।
कार्तिकेय का मोर, लगाये सर्प खाने का फेर'
मोर को खाने की युगत, लगाता पार्वती का शेर।
स्त्री का बल अधिक तो, रह नहीं पाता मेल।
शक्तिशाली होकर स्त्री, करे प्रेमियों से खेल।
मृदु बचन बोल कर, फंसा लेती है जाल में ;
कठोर चित्त से डँस लेती, पाते नहीं वो झेल।
झूठ, साहस, माया, लोभ का, है धरे पिटारा।
विद्वान, वीर सब, स्त्री अदा पर जाता मारा।
सुन्दर मुखड़े पर मोहाय, फंस जाता जाल में ;
मकड़ी के जाल फंसा, लगता है कीट बेचारा।
जोरू, जमीन और जर
होते हैं झगड़े की जड़।
मित्र भी बैरी हो जाता
गर बीच में जाता पड़।
एक आदमी है कि वो आगे क्या बढ़ जाता है,
अपनों को, व साथ ही अवकात भूल जाता है।
घडी की बड़ी सुई साठ गुना गति रखती है,
फिर भी छोटी से हर घंटे दिल मिल जाता है।
सूरज सा गरम न बनो की चाँद ही छुप जाय।
हिम सा शीतल न बनो कि जिंदगी जम जाय।
फूल सा नरम न बनो कि हर भौंरा छेड़ जाय।
हीरा सा कठोर न हो कि मूर्ति भी न गढ़ पाय।
घोडा को सवार, अस्त्र को वीर लायक बनाता है।
वीणा को संगीतज्ञ और शास्त्र को ज्ञानी जगाता है।
ज्ञान और कुशल वाणी जो है धारण किये होता ;
जहाँ कहीं भी जाय, वह उचित सम्मान पाता है।
जलती लकड़ी छूने पर उंगली जल जाती।
ठंडी लकड़ी में छुपी अग्नि नहीं जलाती।
जो शक्ति रखता और प्रकट नहीं करता;
तिरस्कृति वो शक्ति व्यर्थ चली जाती।
कोई तो वन में छोड़ दो, तो भी जी जाता ।
कोई है, सुरक्षित किला में भी मर जाता ।
किसी की रक्षा, जब ईश्वर स्वयं करता ;
काल खुद आकर भी उसे मार नहीं पाता।
दुश्मन से हो जाय दोस्तानी भी,
रखना चाहिये सावधानी ही।
जलती आग को बुझा देता है ,
हो कितना ही, गरम पानी भी।
पत्थरों के लिये दौड़ने को, तत्पर हुआ जाता हूँ।
आदमीयता के मामले में, सिफर हुआ जाता हूँ।
पत्थरों की सड़क पर, सरपट दौड़ती ये जिंदगी;
पत्थरों के शहर में रहकर, पत्थर हुआ जाता हूँ।
समुद्र नहीं नदी से, लकड़ी से न आग अघात।
तृप्ति न पाए काल, प्राणियों को खाये जात।
मनुष्य की भी विषय वासना, होती न समाप्त,
चला जाता समाये उसमें, भूल निति की बात।
रेशम निकलता कीड़े से और हीरा पत्थर से।
आग जनमती काठ से और कमल कीचड़ से।
सांप के अंदर मणि होता और सीप में मोती;
कौन छुपाये क्या गुण! जान पड़े भीतर से।
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बात की बात
जैसे कि छिटके बीज से, जमीं पट जाती है।
बरसात में फिर नयी, पौध निकल आती है।
पौधों से वसुधा पर, हरियाली छा जाती है।
नये बीज निकलने का, संयोग ले आती है।
बातों बातों में, दूसरी, बात निकल आती है।
चलती है जब बात तो, दूर तलक जाती है।
बनावटी बातें तो होतीं, चापलूसी का सबब,
सच्ची बातों में मगर, प्रीत झलक जाती है।
बातों में किसी बात का, हल निकल आता है।
बातों से बिगड़ा हुआ, रिश्ता संभल जाता है।
बात कर लेने से थोड़ा, दिल बहल जाता है।
बात कर लेने से भी, हालात बदल जाता है।
कभी किसी बात से जज्बात भड़क जाता है।
कभी प्यार भरी बात से कलेजा जुड़ाता है।
मीठी बातों से किसी का दिल सहलाता है।
कर ले दो बात तो, दिल हल्का हो जाता है।
मजे की बात से, सबका खिल जाता है दिल।
बातों बातों में, किसी से मिल जाता है दिल।
कभी घाव, कभी मरहम लग जाता बातों से।
कभी जुड़ जाता तो कभी टूट जाता है दिल।
एस० डी० तिवारी
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परेशानी में पड़ जाता, जिसने है खुला छोड़ा।
बांध कर रखा नहीँ, अपनी चाहत का घोडा।
छिन जाती है सुख-शांति, रखे ना जो ध्यान
काबू में हो चाह, हाथ हो लगाम और कोड़ा।
साफ घर में भी कूड़े के लिये, एक कोना होता है।
रात में जागने के लिये, दिन में सोना होता है।
लगन से ढूंढता जो भी पाता वो लक्ष्य अपना
कुछ पाने के लिये, हरेक को कुछ खोना होता है।
दूसरों की देख कर के, कभी ना कर डाह।
अपने परिश्रम से ही पूरी, होती हर चाह।
धनी से जयादा निर्धन की होती सहन-शक्ति
किसी और के सम्पति की, दूजे को न थाह।
मैं तो अपने आईने को पोंछता चमकाता रहा।
वह नमकहराम मेरा बूढ़ा चेहरा दिखाता रहा।
मैंने रखा था संभाले उसे, हमेशा नये के जैसा,
और वो वक्त के साथ बेवफा हुआ जाता रहा।
मिटटी में ही जन्म लिया है, मिटटी से ही खाना।
मिटटी ही देती सबको, कपड़ा, लत्ता, आशियाना।
मिटटी ला कर घर भर लेते, मिटटी से इतराना।
मिटटी में ही पालन-पोषण, मिटटी में मिल जाना।
चाहो, कितनी भी ज्यादा उन्नति।
रखना होगा पर काबू में ही गति।
शीघ्र पहुंचोगे जिंदगी के उस छोर,
दिखाए यदि भागने में तेजी अति।
पूर्वजों ने संजोया, उसको मिटाए जा रहे हो।
आज के लिए कल को भी, खाये जा रहे हो।
आगे की पीढ़ी को तो, डाल ही रहे संकट में
अपने भी काल के मुंह में समाये जा रहे हो।
पच्छिम में अम्बर लाल होते, आती शाम सुहानी एक।
शाम को ख़त्म हो जाती रोज, दिन भर की कहानी एक।
अँधेरा-उजाला देखते, सुबह और शाम रोटियां सेकते
ये उम्र ढल जायेगी, ख़त्म हो जायेगी जिंदगानी एक।
कितनी फुर्सत थी, तूने सबके अलग नसीब बनाया।
किसी को अमीर तो किसी को, बड़ा गरीब बनाया।
भेजना था इतनी दूर, अपनों को ही अपनो से जब
काहे को किसी को, अपनों के इतना करीब बनाया।
तुम आये तो बेला, गुलाब खिले।
तुम्हारे आने से, दो आब मिले।
बहने लग पड़ी एक दरिया बनके
उफनते खुशियों के शैलाब चले।
किसी की मजबूत होती, किसी की कमजोर।
कई तो अपनी उड़ाते, काट के दूसरों की डोर।
कभी न कभी उड़ जाती है, सब की ही पतंग
देखना होता बस, कब चल रहा हवा का जोर।
खुदा, वो सब क्यों दूर रखता? जो मुझे पसंद है।
उसे ही पाने से मजबूर रखता, जो मुझे पसंद है।
जो कुछ तू दे देता, बच्चों सा मुझे पसंद न आता
वह सब दूसरों के हाथ में होता, जो मुझे पसंद है।
मै कोई परवाना तो नहीं, मुहब्बत करुं जल जाने को।
मैं कोई मकरंद तो नहीं, रस चूसूं कैद हो जाने को।
मैं कोई चकवा तो नहीं, चाँद को ताकूँ खा जाने को।
मैं कोई पपीहा तो नहीं, बूंदों को जोहूं मर जाने को।
ढह जाती
है कभी न कभी, पुरानी
दीवार।
कह जाती
है कहानी कोई, पुरानी
दीवार।
पुराने
रिश्तों का, होता कुछ ऐसा ही हाल
मरम्मत बिन खंडहर, ढही पुरानी दीवार।