Monday, 20 July 2020

Sajal


१२२ १२२ २२२ २२१  २२२ 

खुदा के शहर में देखा, दीया है न बाती है।
वहां की न जानूं कैसे, रैना जगमगाती है।

सड़कें ना सेतु वहां पे, लगे न पहिये इंजिन
जानूं ना उड़ती कैसेगाड़ी चली जाती है।

कहीं नहीं पंखा कूलर, वातानुकूल कहीं ना,
सुगन्धित पवनिया शीतल, जीया को जुड़ाती है।

कहीं पर अस्नान घर ना, और न ही घाट देखा,
बरसती झड़ी में जनता, उमंग भर नहाती है। 

न तन पर पोशाक महंगे, पहने न गहने कोई,
मगर जन जन की वहां के, सुंदरता लुभाती है।

चारु फल पेड़ों पे लटके
, कोठिले भरे 
अन्न से,
फरिश्तों की भीड़ बैठी, खाकर के अघाती है

शयन जागरण की चिंता, करता न 
कोई 'देवा',
सभी पर कृपा ही उसकीसुख चैन बरसाती है।


******
     २ 

राह बता कोई, सखी! तू हे री!
पास जो जाऊं, पिया रीझे री।
करूँ क्या उपाय, समझ ना पाऊँ,
मुझसे बने नहीं, छवि ही मेरी।
स्वयं पर ना सखि! होवे भरोसा,
दर्पण मैं देखूं, कई कई बेरी।
नहाने गयी मैं, नदिया किनारे,
वस्त्र ना सूखे, हो गयी देरी।
पहने आभूषण, पिऊ नहीं भावे,
सोना न चांदी, नग ना जड़े री।
चाहूँ मैं रंगना, रंग में पिया के,
लाख बनाऊं, रंग ना बने री।
'देवा' श्रृंगार,  करूँ मैं कैसे,
अंक में मुझको, पिया ले ले री।



घर से भेज जमीं पर, रहने के लिए जगह दी।
चलने के लिए पांव, सोने के लिए सतह दी। 
खाना, पानी, हवा, दवा, और सिर पे छाँव दिया,
प्यार बेसुमार दिया, अगर कभी विरह दी।
राह में कांटे 
पड़े, पांवों में चुभे कभी तो,
निकाल उसे लेने को, काटों से ही सुलह दी।
कितने तो दुश्मन हैं, हो जाता दुस्वार जीना,
बा अक्ल हम उनसे लड़े, और तूने फतह दी।  
रिश्ते नाते दिए, तूने दोस्त यार दिये,
उनके संग में हमें, मुस्कराने की वजह दी।
सभी उन लोगों का, हम तो शुक्रगुजार हुये,
जिन्होंने भी वक्त पर, दिलों में अपने जगह दी।
दुर्दिन घेर लेते तो, क्या हम कर लेते 'देव',
उनको दिया मात और, हमें हमेशा सह दी।
कैसे कर पायें खुदा, तेरा हम शुक्रिया अदा,
हर बीते साल तूने, तीन सौ पैसठ सुबह दी।

                                
१७
२ २ २ २  १ २ २ २ २


तू जब चाहेतभी मिलती है।
अपने में ही रमी मिलती है।

मैं चाहता रोज रोज तुझको,
तू है कि कभी कभी मिलती है।

डोलती कभी उलझनें लेकर, 
झंझटों में फंसी मिलती है।

खो जाती है जाने कहाँ तू,
झमेलों में घिरी मिलती है। 

कभी पंख सी हवा में उड़ती,
बर्फ सी कभी जमी मिलती है।

कभी फूलों के संग महकती  
कभी शूल में अटकी मिलती है। 

कभी किन्हीं अनजान राहों में 
अनायास भटकती मिलती है,

कभी हाट बाजारों में फिरती,
सुख साधन ढूंढती मिलती है।

क्यों नहीं प्रति दिन तू मुझको,
 मेरी जिंदगी! मिलती है?



        ४         

जिंदगी बदल गयी है 

लगता है, हाथ से निकल गयी है।
जिंदगी तू कितनी बदल गयी है।

मशीनों की अब दास हो गयी तू। 
समझ रही बिंदास हो गयी तू।  
तन मन खुद आसक्त कर लिया, 
कैसे कहूं कि खास हो गयी तू।  
आडम्बर में खुद को छल गयी है।  जिंदगी ... 

भौतिकतावाद में लिपट गई तू।
बस अपने तक सिमट गयी तू।  
पड़ी आपाधापी के चक्कर में, 
आचार व्यवहार  से हट गयी तू।  
संवेदनाओं को मसल गयी है। जिंदगी ... 

गुरु, श्रेष्ठ जनों से ज्ञान तू पाती,
बस सच्चाई को गले लगाती।  
अत्यंत सहज सरल रह कर भी तू,  
थी आनंद का अनुभूति कराती।  
नैतिकता भी तेरी गल गयी है।  जिंदगी  ... 

कहकहों में कितना समय बिताती। 
भाई चारा भी तू भली निभाती। 
स्वछन्द स्वाभाविक गति थी तेरी 
संकीर्णता अब है तुझे सताती।
संतोष की मोम पिघल गयी है।  जिंदगी ...

आलस, व्याधि से दूर थी रहती।
प्रकृति प्रेम में चूर तू रहती।
बनावट और दिखावे से हट के,
सादगी में मगरूर तू रहती। 
सुख-चैन को खुद ही निगल गयी है। जिंदगी  ...  

दिखावे में तू नंगा हो जाती।    
चमक देख पतंगा हो जाती। 
लालसा का तनाव दूर बहाकर 
क्यों नहीं तू गंगा हो जाती। 
विलासिता तुझमें पल गयी है। जिंदगी  ...

काँटों से सतत तू बिंधी जा रही। 
फिर भी आँखें मिंची जा रही
सुविधा की गाड़ी पर चढ़ा कर,
जिंदगी अब तू खींची जा रही। 
किस दलदल में तू फिसल गयी है! जिंदगी ….

शीघ्र पहुँचने की कहाँ, होड़ में!
तू पड़ी हुई है अजब दौड़ में। 
पथ के आनंद से वंचित होगी,  
जल्दी जाकर के अंतिम छोर में। 
किस मृगतृष्णा में डल गयी है। जिंदगी …  


                    ५ 

जिंदगी है बहता पानी।

समझ न पाया कोई कहानी।
जिंदगी है बहता पानी।

समय सरिता में बहती जाती
रोड़ों की ठोकर सहती जाती,
घावों की अपने लिए निशानी।  जिंदगी ...

मासूम की पल पल की कल कल,
मचाती रहती मन में हल चल,
है ये बेढब कभी सुहानी।  जिंदगी ...

धाराएं मग में जुडती जातीं,
अंधे मोड़ों पर मुड़ती जातीं,
चलती रहती मगर सुजानी।  जिंदगी ...

कभी अपनी गति पर इतराती,
कभी लगता स्थिर हो जाती,
हो जाती कभी तूफानी।  जिंदगी ...

कभी पहाड़ों से लड़ जाती,
कभी तिनकों से अड़ जाती,
करती कभी खेल बचकानी।  जिंदगी ...

कौन सी धुन में कल कल करती,
किस सागर में जाकर मिलती,
दुनिया है अब तक अंजानी।  जिंदगी ..




किराये की जिंदगी

खुदा! तूने पटका, जहाँ पर जमीं पर।
अस्पताल का था, किराये का बिस्तर।

आँचल का माँ के, जो पाया था साया,
प्यार में यूँ लगा, होगा अपना बसर।

होने पर बड़ा, छिन गया था वो साया,
बदले जिंदगी के, हालात इस कदर।

रोटी दो वक्त की, जुटाने की खातिर,
यूँ भटकना पड़ा, इस शहर, उस शहर।

बदलना पड़ा खुद के रहने की खातिर,
ले सस्ता या मंहगा, किराये का घर।

आसान कहाँ था, आना जाना कहीं पर, 
दे दे के भाड़ा किये कितने ही सफर। 

सुन आवाज दिल की, की दिल की तलाश,
महफिलों में निकल, फिर फिरे दर बदर।

मिला दिल, लगा पर, किराये का वो भी,
रखता वो भी कमाई और बटुए पे नज़र।

मौत आई तो समझे, मिली अब निजात,
देना होगा किराया, खुदा के न घर।

रुके आराम को, जब रस्ते में 'देव', 
खुदी दे के किराया दो गज की कबर।




किराये की जिंदगी

खुदा! तूने पटका,
खुदा! तूने पटका, जहाँ पर जमीं पर।
खुदा! तूने पटका, जहाँ पर जमीं पर।
अस्पताल का था, किराये का बिस्तर।

आँचल का माँ के, जो पाया था साया,
आँचल का माँ के, जो पाया था साया,
लगा प्यार में यूँ, होगा अपना बसर।

होने पर बड़ा,
होने पर बड़ा, छिन गया था वो साया,
बदले जिंदगी के, हालात इस कदर।

रोटी दो वक्त की,
रोटी दो वक्त की, जुटाने की खातिर,
यूँ भटकना पड़ा, इस शहर, उस शहर।

बदलना पड़ा
बदलना पड़ा खुद के रहने की खातिर,
ले सस्ता या मंहगा, किराये का घर।

आसान कहाँ था,
आसान कहाँ था, आना जाना कहीं पर, 
दे दे के भाड़ा किये कितने ही सफर। 

सुन आवाज दिल की
सुन आवाज दिल की, की दिल की तलाश,
महफिलों में निकल, फिर फिरे दर बदर।

मिला दिल, लगा पर
मिला दिल, लगा पर, किराये का वो भी,
वो भी रखता कमाई और बटुए नज़र।

मौत आई तो समझे
मौत आई तो समझे, मिली अब निजात,
देना होगा किराया, खुदा के न घर।

रुके आराम को,
रुके आराम को, जब रस्ते में 'देव', 
खुदी दे के किराया, दो गज की कबर।

खुदा! तूने पटका, जहाँ पर जमीं पर।
अस्पताल का था, किराये का बिस्तर।


              

****


    ९ 

होती है मुहब्बत, किसी  किसी से जमाने को।

होते हैं गम और भी, हर शख्श को निभाने को।

होती है मुहब्बत, सबको ही अपनी जिंदगी से,
जीते हैं लिए मगर, किसी और के फसाने को।

होती है बादलों को, मुहब्बत अपनी बूंदों से,
बरस देता है मगरऔरों की प्यास बुझाने को।

होती है मुहब्बत, नदिया को अपने पानी से,
सागर सेचली जाती लिए वादा निभाने को।

होती है चाँद को, मुहब्बत अपनी चांदनी से,
खुद से कर देता अलगधरती को चमकाने को।

होती है मुहब्बत, फूलों को अपनी खुशबुओं से,
देते हैं बिखेर पर वो, चमन को महकाने को।

होती मुहब्बत 'देव', माँ बाप को अपनी लाडली से,
भेज देते हैं मगर, किसी और का घर बसाने को।



   *****

              १० 

समय था, अकेले में मिल जाता आदमी। 
बड़ी ताकत और सुकून पाता आदमी। 
आज है कि वो इतना खुंखार हो चुका,
डर लगता, अकेले में दिख जाता आदमी। 


इस तरह क्यों खुदगर्ज बना है आदमी। 
इंसानियत का ही मर्ज बना है आदमी। 
खुदा ने भेजा है दौलत बना कर के उसे,    
फिर धरती का काहे कर्ज बना है आदमी। 

बुरा मान जाता जानवर कहलाता है आदमी
शेर कहलाने को जानवर बन जाता है आदमी।
साधना होता इसे जब कभी मतलब की बात,
भीतर सोया हुआ जानवरजगाता है आदमी


भगवान उठा ले, क्रोध में,  बोलता है आदमी। 
यमदूत आते, छुपने की जगह, ढूंढता है आदमी। 
खुद को जीवित रखने को जान भी लेनी हो अगर,
अपने सगों तक के लिए, जहर घोलता है आदमी। 


सम्भाल पाता नहीं पर नाते जोड़ लेता है आदमी

बनानी हो डगर प्यार की, मुंह मोड़ लेता है आदमी

भरने में रस प्यार का, निकल जाता मौसम पूरा,

तनिक अनबन में नीबू सा निचोड़ देता है आदमी 


सेकने को रोटी अपनी, आदमी में आग लगा देता है आदमी। 
चाहे हो खोटी अपनी, अठन्नी कैसे भी चला लेता है आदमी। 
ज़माने को गोटी अपनी, कई भांति युगत भिड़ा लेता है आदमी,   
ऊँची हो चोटी अपनी, औरों के सिर पांव जमा लेता है आदमी।  

जीते जी कितनी आग लगाता है आदमी।
केवल अपने ही दिल को जलाता है आदमी।
मरने पर होती दो कुंतल लकड़ी ही काफी   
आदमी का पूरा तन फूंक आता है आदमी।

संभव कुछ नहीं अगर ठान ले आदमी। 
मुकाम को ठीक से पहचान ले आदमी।
लगन और साहस है उसकी  ताकत बड़ी
बस सलीके से चलना जान ले आदमी।  


आग 


आदमी में मजे से आग, लगा देता है आदमी। 
आदमी में लगी आग से, मजा लेता है आदमी।

धधकने लग जाती है जब, लगायी वो उसकी आग,  
आंच की ठंडक में उसकी, जुड़ा लेता है आदमी। 

नहीं लगाता आग वो भी, होता कहाँ किसी से कम, 
और की लगायी आग को, हवा देता है आदमी।

आग लगाने की सनक में, जले चाहे घर किसी का, 
सेंक उस पर अपनी रोटी, पका लेता है आदमी।

आग लगाने का खेल कुछ, सुहाता उसको  इस तरह,
जिंदगी लगा बुझा कर ही, बिता लेता है आदमी।

लगाने की कइयों की तो, एक फितरत ही होती, 
लगाने बुझाने में खुद को, जला लेता है आदमी। 

जलता किसी दूजे का घर, उसे लगता है आतिशी, 
लग जाये खुद के घर 'देव', छटपटाता है आदमी। 


    ******


     ११ 

खुशियों की तस्वीर गढ़े जा रही है। 
दुल्हन बन के डोली चढ़े जा रही है। 

नयन में बुने हैं, नये स्वप्न उसके
गमों का पिटारा, दिये जा रही है।

चली है बसाने, सजन का महल अब,  
पिता का घर खाली, किये जा रही है।   

जगमगायेगा अब, पिया का सजा घर,  
तिमिर मातु उर में, भरे जा रही है। 

करती थी रुन झुन, चहकती हमेशा,  
सुखोचैन माँ का लिये जा रही है। 

उड़े थी कभी वह, कली सी हवा में,
बड़ा बोझ सिर पर, धरे जा रही है। 

सखी  और सहेली भरीं अश्क नयनन,    
जुदाई गरल 'देव' पिये जा रही है। 


******


           १२ 

किये तुम हमसे जो बर्ताव, कहाँ कहाँ रोयें। 

दिए जो तुमने गहरे घाव, कहाँ कहाँ रोयें। 


हिया ये होता गया छलनी, चलाये तीरों से; 

रहे उस पर भी दिखाते ताव, कहाँ कहाँ रोयें।


दिए हो मुश्किलें भारी, कि निकलना मुश्किल; 

चले हो ऐसे ही तुम दाव, कहाँ कहाँ रोयें।

 

चहक उठता चमन दिल का, कभी मिल के तुमसे;

कर दिए बंद देना भाव,  कहाँ कहाँ रोयें।  


लगेगी पार किसी एक दिन, थे उम्मीदों में;    

डुबोये तुम्हीं प्यार की नाव, कहाँ कहाँ रोयें। 


कर दिया मना पेड़ों ने अब , हमको देने से;

जुड़ाने खातिर थोड़ी छाँव, कहाँ कहाँ रोयें।


चुभन देती है बड़ी दर्द, 'देव' उन तीरों की;

छिना अब जीने का भी चाव, कहाँ कहाँ रोयें।


(C)  एस. डी. तिवारी 


   १३ 


दिन रात याद सताने लगी, तुम्हारे जाने के बाद। 
तन्हाई दिल दुखाने लगी, तुम्हारे जाने के बाद।
नहीं 'उठो जी' कोई कहता, ना ही चाय पूछता, 
नींद देरी तक आने लगी, तुम्हारे जाने के बाद।
खानी पड़ रही आजकल, सेंक कर के खुद ही, 
रोटी उंगलियां जलाने लगी, तुम्हारे जाने के बाद।
पिज्जा बर्गर कचरा भोज्य, कभी खिचड़ी ही अकेली,
प्लेट हर बार सजाने लगी, तुम्हारे जाने के बाद।  
बगैर धुले ही ये कमीज, हुई कितनी बद्तमीज,  
कई दिन तन पे छाने लगी, तुम्हारे जाने के बाद।
झाड़ू लगे भी हो जाते हैं, घर में महीनों अब तो,
तस्वीर पे धूल छाने लगी, तुम्हारे जाने के बाद।
सिरहाने पड़ी एकोर वो, सिसकती दूसरी तकिया,  
सट सीने से सुलाने लगी, तुम्हारे जाने के बाद। 
तब थोड़ा सा ना कर पाए, अब इतना सब बर्दाश्त,
करनी खुद की पछताने लगी, तुम्हारे जाने के बाद।
कितना होता जानो मुश्किल, 'देव' अकेले में जीना'
बात समझ हमें आने लगी, तुम्हारे जाने के बाद। 


   १४ 

मधुमास देखो छाने लगा, तुम्हारे जाने के बाद। 
दिन तनहा हमें भाने लगा, तुम्हारे जाने के बाद। 
पतझड़ आया तो था जरूर, रहा पर थोड़े ही दिन, 
फिर मौसम रंग लाने लगा, तुम्हारे जाने के बाद। 
रहना तुम्हारा दूर ही अब, दिल को लगता है भला, 
कोई पास मंडराने लगा, तुम्हारे जाने के बाद। 
खुलने लगा है द्वार दिल का, अपने आप ही यहाँ पे, 
भीतर कोई समाने लगा, तुम्हारे जाने के बाद। 
जाग गये भाग बिल्ली के कि टूटा छींका जल्द ही,
वो तो द्वार खटखटाने लगा, तुम्हारे जाने के बाद। 
बादल ज्यूँ घेरेआया हो, दिल औ दिमाग पर छाया,  
साथ हमारा निभाने लगा, तुम्हारे जाने के बाद। 
मनाते तो मनाते कैसे, इस हाल में तुम्हें आके,
वो हम पर हक जमाने लगा, तुम्हारे जाने के बाद। 



  १५ 
गांव ने दिया

तिरंगा के तीनों रंग गांव ने दिया। 
राष्ट्र के सब प्रमुख अंग गांव ने दिया। 

हरा है कृषक, कृषि से हरियाली है।
केसरिया, सैनिकों की बलिहारी है। 
श्वेतरंग - श्रमस्तम्भ, गांव ने दिया। 
तिरंगा के तीनों रंग गांव ने दिया। 

बाकी सब तो हैं चक्र की तीलियाँ। 
गांव के सहारे ही है उनकी दुनियां। 
पेट भरने को अन्न गांव ने दिया।  
तिरंगा के तीनों रंग गांव ने दिया। 

आधुनिकता में भी संयम रखा है। 
संस्कृति को देश की कायम रखा है। 
लोक कला की उमंग गांव ने दिया। 
तिरंगा के तीनों रंग गांव ने दिया। 

पर्यावरण की लड़ाई गांव लड़ता। 
सीमा पर प्रहरी भी गांव भेजता। 
कामगारों की पतंग गांव ने दिया।  
तिरंगा के तीनों रंग गांव ने दिया। 


१६ 

तिरंगा 

राष्ट्र का है श्रृंगार तिरंगा। 
कइयों पर क्यों भार तिरंगा। 
राष्ट्र के वीर सपूतों से यह 
नित पाता रहा निखार तिरंगा। 
प्राणों की बलि लेकर वीरों का   
ये हमको हुआ सुमार तिरंगा। 
डंडे में लगा झंडा ना जानो  
राष्ट्र गौरव का सार तिरंगा। 
देश के नागरिकों के दम से 
है बना हुआ दमदार तिरंगा। 
तेरी छाँव में साँस हम लेते 
तुझ पर हैं न्यौछार तिरंगा। 
ऐसे भी इस राष्ट्र में रहते 
प्रतिष्ठा करते तार तिरंगा। 
देखा जो कोई बुरी नियत से 
रख देंगे उतार खुमार तिरंगा। 
प्रण लेते हम झुकने ना देंगे,  
देना पड़े प्राण को वार तिरंगा। 



१७ 
मोबाइल फोन

अपने कारनामों पर इतराता मोबाइल फोन। 
चमत्कारों से सबको लुभाता मोबाइल फोन।
आधुनिक दुनिया का बना अनोखा साथी,
चुगल कराता, युगल कराता, मोबाइल फोन।
टी.वी., कैमरा, घड़ी, गणक, रेडियो, रिकॉर्डर, 
पूछो न कब क्या बन जाता मोबाइल फ़ोन। 
कर दिया कम्बख्त ने पूरी दुनिया मुट्ठी में, 
घर बैठे त्रिभुवन दिखलाता मोबाइल फोन।
माँ शारदे का बना यह साक्षात् अवतार,
ज्ञान भंडार, सब कुछ बतलाता मोबाइल फोन।
ना तो बैंक को जाना, ना नकदी संग ढोना, 
समक्ष रख देता बैंक का खाता मोबाइल फोन।  
कभी गाल से, कभी छाती से चिपका होता, 
लाल से भी लाडला बन जाता मोबाइल फोन। 
दूर होने पर कर देता दिलवर सा व्याकुल,
क्षण क्षण का सुख चैन चुराता मोबाइल फोन। 
समेटे रखता वर्षों की यादों का भंडार,   
बीते दिनों की फिल्म चलाता मोबाइल फोन। 


    २ 
पल पल का सुख चैन चुराता मोबाइल फ़ोन।  
नहाते, खाते,कभी बज जाता मोबाइल फोन।
आज्ञाकारी सेवाकर्मी पर स्वास्थ्य अधर्मी,   
रेडियोधर्मी  किरण फैलाता मोबाइल फोन।
कभी तो आंख बन जाता, कभी आँखों का शत्रु, 
कम उम्र में ऐनक चढ़ाता मोबाइल फोन। 
कर देता खड़ी कभी ये बड़ी मुसीबत, 
अजनवी के हाथ लग जाता मोबाइल फोन। 
बच्चों का खेल सिमट गया इस छोटे यंत्र में, 
बाह्य जगत से तोडा नाता मोबाइल फोन।
पल पल की घर की खबर बहु के मायके देकर, 
संबंधों में आग लगाता मोबाइल फोन।
करा देता बिना मतलब की खरीददारी 
प्रचार दिखा कर भरमाता मोबाइल फोन।
पासवर्ड चुरा के चोर अलीबाबा बन जाता, 
खजाने की चाभी पकड़ाता मोबाइल फोन। 
निगले की उगले मुंह का ये सांप छछूंदर,  
समझ न पाता, बड़ा सताता मोबाइल फ़ोन।  


१८ 

दिल्ली का दंगा


कईयों का बन गया काल, दिल्ली का दंगा।
कईयों को किया कंगाल, दिल्ली का दंगा।
सुकून से रहने वाले वासियों के जीवन में;
लेकर आया बड़ा भूचाल, दिल्ली का दंगा।
रोजी-रोटी, घर छीना, प्रेम परस्पर छीना;
नफरतों का फेंका जाल, दिल्ली का दंगा।
जलाया भाई-चारा, पड़ोस का नाता सारा;
सालों से रक्खा सम्हाल, दिल्ली का दंगा।
इंसानों को मारा, इंसानियत को मारा;
हैवानियत की हुआ मिसाल, दिल्ली का दंगा।
बिलख रही इधर भी माँ, बिलख रही उधर भी माँ;
किसे सुनाये लाल का हाल, दिल्ली का दंगा।
बम, कट्टे, पत्थर, तलवार, सिर पर खून सवार;
दिया गजब दहशत में डाल, दिल्ली का दंगा।
रौशन करता जो राह, उससे लगाया आग;
जलाया घर लिए मशाल, दिल्ली का दंगा।
छलनी कर दिया उस मातृ भूमि का सीना; 
बड़ा किया है जिसने पाल, दिल्ली का दंगा।
दुश्मन से दुम चुराना, आपस में लड़ मरना; 
खड़ा करता कई सवाल, दिल्ली का दंगा। 
अपनी अपनी रोटी, सेकने वालों का काम; 
ओढ़े जाति-धर्म की खाल, दिल्ली का दंगा।
सूझ, शौर्य, इंसानियत, लिए 'देव' अनेक, मगर; 
समक्ष गला न पाया दाल, दिल्ली का दंगा। 


एस. डी. तिवारी 



१९ 

तू बलात्कारी है 


नारी की प्रतिष्ठा का एक शिकारी है। तू बलात्कारी है। 


तूने वो सब ले लिया, उसे जो वापस नहीं मिलेगा। 

मन का ये मुरझा गया सुमन, फिर से नहीं खिलेगा। 

वह एक कली थी, अब उम्र से पहले फूल हो गयी, 

क्षत विक्षत हो गया वक्ष उसका, फिर नहीं सिलेगा। 

ढोना पड़ेगा जीवन भर, तुझको ये पाप भारी है। तू बलात्कारी है।


बिखर गए हैं सपने उसके, मरने को जी होता है। 

अपने रक्तपात को सोच, हृदय उसका रोता है।  

आहत हृदय की असह्य, व्यथा लिए नित कराहती,  

जाग रात को चीत्कारें मारती, जब जग सोता है। 

दूर खड़ा दानव भी सुना, जब वो चीत्कारी है। तू बलात्कारी है। 


वो काला दानवी चेहरा, वह कदापि न भूलेगी।  

छाया जो वो घोर अँधेरा, वह कदापि न भूलेगी।  

रेता जा रहा था हवस की धार से वक्ष को उसके,   

हृदय चीर कर घाव उकेरा, वह कदापि न भूलेगी। 

फेंके गए पैसे उस पर, जैसे कोई भिखारी है। तू बलात्कारी है। 

 

लगा कि ऊपर रखा, अति विशाल एक पत्थर था।  

मनुष्य को लीलने वाला, जैसे कोई विषधर था।  

वे दाहक स्पर्श, चिता की अंगारों से जलाते रहे,  

जैसे मुख से ज्वाला फेंकते, समक्ष कोई तमचर था।  

सोचा तूने वह पदार्थ एक, और अबला नारी है।  तू बलात्कारी है। 


कइयों ने समझाया उसे, भूल जाए मगर कैसे?

भूल भी पायेगा कभी, वीभत्सता को नगर कैसे?

फटे हुए चित्र सा वो, मुखड़े के है चिथड़े लिए,  

चल पायेगी सहजता से, अब वह उसी डगर कैसे?

जीवन पर रख दिया जो तूने, हर बोझ से भारी है। तू बलात्कारी है। 


कई दिनों तक जैसे वह, जमीन के नीचे गड़ी रही। 

अनजाने किन्हीं अंधेरों में, मृतक की भांति पड़ी रही।  

छैनी और हथौड़ा लिए, तू बदन को छीलता रहा, 

किसी जड़ शिला की भांति, उस दिन वो जड़ी रही। 

शाप तू अवश्य भोगेगा, लांघी मर्यादा सारी है। तू बलात्कारी है। 


अपनी अबला के चोले से, अब वह बाहर कढ़ेगी। 

आत्म सुरक्षा के प्रभावी और प्रबल शस्त्र गढ़ेगी।  

बहुत सह चुकी है अब तक, अब और नहीं सहेगी,  

तेरे जैसे दैत्य दानवों से, वह खुलकर के लड़ेगी।

अत्याचारों से जीतने को खड्ग हाथ में धारी है। तू बलात्कारी है। 


२० 
 
मात्रा भार २३

होगा वही जो होना, दिल रोता क्यों है?
व्यर्थ है पलक भिगोना, दिल रोता क्यों है?

होता नहीं है सबके, वश का झेल पाना,
प्यार का जादू टोना, दिल रोता क्यों है?

है हाथ नहीं स्वयं केप्यार का खिलौना;
खेल पाना या खोना, दिल रोता क्यों है?

होता
 लिए 
है पीड़, प्रेम में मीठा सा,
हृदय का कोना कोना, दिल रोता क्यों है?

इन प्यार की राहों में, पड़ता है सबको,
यादों का बोझ ढोना, दिल रोता क्यों है?

उसकी सुने ना कोई, जो प्यार में हारा, 
वृथा ही व्यथा कहो ना, दिल रोता क्यों है?

प्रीत की डगर में 'देव' अधिक  फूल से शूल,
सपने सोच संजोना, दिल रोता क्यों है?

- सत्य देव तिवारी, एडवोकेट

****

२१ 

बंधन जिंदगी का बेजोड़, इसे क्या नाम दें ?

बांध कर रखी प्यार की डोर, इसे क्या नाम दें ?

चलते रहे मिल के साथ, सहे संग
 धूप छाँव ,
आये जिंदगी ले इस छोर, इसे क्या नाम दें ?

निकले तुफानों को 
चीर, किये सैलाबें पार,
रोक सका न आँधियों का जोर, इसे क्या नाम दें ?

मिल 
शूलों को रौंदा हमने, और फूलों को चूमा,
पार किये अंधियारों का दौर, इसे क्या नाम दें ?

शायद दुखाये हों दिल को, एक दूजे के कभी,
सका ना 
दर्द हमें झकझोर, इसे क्या नाम दें ?

बने हमराही
 हम सफर के, ज्यूँ कल की हो बात,
काटे राह लम्बी जिस तौर! इसे क्या नाम दें ?

परस्पर प्यार कि समर्पण या आपसी विस्वास!
अबूझ
 करके भी 'देव' गौर, इसे क्या नाम दें ?

एस० डी० तिवारी


*****

वक्त चला चलता रहा, हम दोनों जमे रहे।
सूरज रोज ढलता रहा, हम दोनों जमे रहे।
आते जाते रहे, पतझड़, ताप और बसंत,
प्यार अपना पलता रहा, हम दोनों जमे रहे।
दरख्त बड़े हुए, बदल गयी दुनिया कितनी,
परिवार भी बढ़ता रहा, हम दोनों जमे रहे।
दरार डालने की, हवाओं की कोशिश का,
सिलसिला चलता रहा, हम दोनों जमे रहे।
बेइंतहां देख कर, 
मुहब्बत हम दोनों की, 
आसमान जलता रहा, हम दोनों जमे रहे।
साथ रहने के लिए, मेहनत भी कम न किये,
पसीना निकलता रहा, हम दोनों जमे रहे।
किसी अनजान धागे ने, बांधे 
रखा कसकर,
गांठ में बल डलता रहा, हम दोनों जमे रहे।


मिली थी प्यार की फुलझड़ी अभी अभी, अभी अभी। 
बीत गए साथ बरस लगता है की अभी अभी, अभी अभी।
कभी पटाखा बन के रही, कभी पताका बन के रही।
कभी गुम सुम सी रही कभी धमाका बन के रही। 
जोड़ी जिंदगी की एक एक कड़ी अभी अभी, अभी अभी। 
कभी नहीं थकी है वो कभी नहीं पकी है वो\
कदमों से कदम मिला के चली कभी नहीं  रुकी है वो 
हर मोड़ पे रही संग में खड़ी अभी अभी, अभी अभी।  



२२ 
मात्रा भार २४


दिल ये रखे है पीर बड़ी, दिखलाऊँ कैसे?
उलझन में जिंदगी पड़ी, सुलझाऊँ कैसे?

उन बातों ने मेरा हाल बनाया ऐसा,
दिल रखता नित बेकली, समझाऊँ कैसे?

झड़ चुके हैं पत्ते भी अब फूलों के बाद, 
पतझड़ में बगिया गयी, महकाऊँ कैसे?

भर दिया है कौन इतना रिश्तों में खटास  , 
फट चुका दूध, दही फिर, रे जमाऊँ कैसे।

कर के जिंदगी तुमने मरुस्थल छोड़ा,
बोये काटों में कली, मैं खिलाऊँ कैसे।

जल रहा बड़ी देर से, जल न डाला कोई, 
लपटें विरह की ऊँची, ये बुझाऊँ कैसे।

जिन गलियों से है 'देव' सालों का वास्ता ,
उनको छोड़ कर यूँ ही, चला जाऊं कैसे।

सत्य देव तिवारी, एडवोकेट  



२३ 
मुहब्बत पर नाज था

अनोखा उसका 
बड़ा, शोख भरा अंदाज था ।
जिसके मुहब्बत पर, हमको बहुत ही नाज था।

चले थे 
रहने हम, मुहब्बत की दुनिया में,
इस दिल में रहता वो, इश्क का सरताज था।

खेकर ले जाते जिसे, पार हम भरोसे से, 
मुहब्बत के सागर में, वही एक जहाज था।

छोड़ कर गया जाने, मुंह मोड़ कर किस डगर, 
आज बेखबर, कभी, हमसफ़र, हमराज था।
 
छोड़ गया सिर पर वो, यादों का बोझ भारी, 
चमकता जहाँ में 
कभी, उल्फत का ताज था।

बजते रहते थे कभी, मुहब्बत के सारे सुर, 
जाने पर रोता रहा, दिल का हर साज था।

खेलते लहरों से मिल, जा के कभी साथ 'देव', 
देखा तनहा फिर तो, साहिल भी नाराज था।

एस० डी० तिवारी


   ******

२४ 

देखा मैंने चलते हुए, गजब का एक बाजार यहाँ।
होता थोड़ी लकड़ी और बस कपड़े का व्यापार यहाँ।

छोड़ कर आता हरेक, सारे हिसाब किताब पीछे,
चला रहा था कितना भी, बड़ा वो कारोबार, यहाँ।

होता संग आने वाला, नजदीकी कितना भी बेशक,
छोड़ जाता कुछ ही देर में, साथ खास रिश्तेदार यहाँ।

आती है भीड़ आँखें खोले, जीते जागते बन्दों की,
होता है केवल मगर, मुर्दा ही खरीददार यहाँ।

एक सी लपटों में, लिवास का रंग एक सबका,
आया चाहे कितना बड़ा, कोई भी रसूकदार यहाँ।

लगाने को ढूंढा जाता, सुन्दर बदन में आग उसके,
होता है सबसे ही सगा, उसका जो नातेदार यहाँ।

चुकाता ना भाड़ा वो, न लकड़ी घी का दाम देता,
खर्च का भी छोड़े जाता, वह औरों पर सब भार, यहाँ।


- एस० डी० तिवारी



   ****





 २५ 
  मात्रा २२ 
नदी जब मचलती, आगे को चलती, 
गा के ये कहतीतुम यहीं कही हो।

नदी जब मचलती, आगे को चलती, 
गा के ये कहतीतुम यहीं कही हो।

संगीत सुनाती, झरने की कलकल,
कहता मन तत्पलतुम यहीं कहीं हो।

गरजतीं जब लहरें, समुन्दर किनारे
चिल्ला के पुकारेंतुम यहीं कहीं हो।

मुझसे बतियाते, चहकते जब पक्षी,
लगता तब सच्चीतुम यहीं कहीं हो।

पुष्प पर मंडराते, भ्रमर गुनगुनाते 
गाकर के सुनाते, तुम यहीं कहीं हो। 

कानों में पवन की, आती सरसराहट,
लग जाती आहटतुम यहीं कहीं हो।

पेड़ों पर बजाकरहाथों से करतल, 
कहते पर्ण के दलतुम यहीं कहीं हो।

सारंगी बजा के, निशा को जगाती,
झिंगुरन बतातीतुम यहीं कहीं हो।  
नदी जब मचलती, आगे को चलती, 
गा के ये कहतीतुम यहीं कही हो।


    ****

२२  

मैं फिर आउंगी

बोली थी बहार, मैं फिर आउंगी। 
करना इंतज़ार, मैं फिर आउंगी। 
मधु भरा कटोरा, दूंगी तुम्हें पिला,  
मदिर लिए बयार, मैं फिर आउंगी। 
सवरूंगी सजूंगी और मैं करूंगी, 
फूलों का श्रृंगार, मैं फिर आउंगी।   
पतझड़ का पहाड़, हो ही जाएगा  
इक न इक दिन पार, मैं फिर आउंगी। 
ले अरुण की हंसी, कलियों की मुस्कान, 
कोयल की मल्हार, मैं फिर आउंगी।  
तेरे दिल में भरने प्रेम सुधा-रस,  
नाचने तेरे द्वार, मैं फिर आउंगी। 
करना 'देव' इतना, ना तुम मुरझाना, 
लेकर प्रणय उपहार, मैं फिर आउंगी।  


२७ 

२१ २१२ २२ २२२  २२२ 

कौन नासमझ! दिल को कहता है शीशा। 
अरे दिल तो है दिल औ शीशा है शीशा। 

खा खाकर  के चोट, खंड होता है दिल, 
पड़े चोट एक, टूट  जाता है शीशा। 

सिसकता किये बिन आवाज टूटा दिल,  
गिरता जब चीख मार रोता है शीशा। 

तड़पता दिल टूट कर अपने ही दर पर,
चटक करके दूर तक, छिटकता है शीशा। 

सह लेता टूटा दिल, चुपके ही पीर को,
दर्द औरों को चुभ के देता है शीशा। 

भटकता है टूटा दिल, मिल जाय राह उसे, 
राह से हटाते जब, टूटता है शीशा

होता 'देव' टूटा दिलटूट के तार तार,
आंच पर पिघल फिर से, जुड़ता है शीशा। 



दिल में रखे रहने से बेहतर, बात कर लिया करो।
जाएगा दिल का बोझ उतर, बात कर लिया करो।
वक्त निकल जाता अच्छा, और लगा रहता है मन, 
आसान हो जाता है सफर, बात कर लिया करो।
दिल की तिजोरी में सजा, रखे मुहब्बत के रतन, 
समय ना ले जाये बहाकर, बात कर लिया करो।
शुरू किया प्यार की गाड़ी, मंजिल तक ले जाना है,
रस्ते में न कहीं जाय ठहर, बात कर लिया करो।  
बात बात में मिल जाता है, किसी बात का हल,
बिगड़ा रिश्ता भी जाता सुधर, बात कर लिया करो।
गप्प शप्प से होता हल्का, दिल ये जाता है बहल।
हालात सभी जाते संवर, बात भी कर लिया करो
बातों बातों में ही कोई, निकल आती बात नयी।
जीत लो दिल मिठास भरकर, बात कर लिया करो।
बनावटी बातें तो होतीं, चापलूसी का ही सबब,
सच्ची बातों में प्यार मगर, बात कर लिया करो।


२८ 
****
२१२ २१२ २१२ २१२ 

प्यार के दरमियां फासले हो गए।
हृदय में पीर के काफिले हो गए।

कातिलाना अदाएं कुछ ऐसी रहीं;  
देख कर घायल अच्छे भले हो गए।  

शोखियों से अपन वो हिया को छले;  
करगुजारी से हम मनचले हो गए। 

कर दिए वो शुरू पर निभाए नहीं; 
प्यार में रार के सिलसिले हो गए। 

मनमुटावों की आंधियां चल गयीं;
अब रहेंगे युदा फैसले हो गए। 

छा गयी उपर तन्हाईयों की घटा;  
जिंदगी के सब लमहे तले हो गए। 

गुल उगे 'देव' भी तो दुखों के रहे;  
गम के गमले में दुखड़े फले हो गए।  


   *******



२९ 

२ १ २ २२२ २२२ २२२ १२
मात्रा भार २७

करवटों में काटे सारी रात, तुम्हारे बिना 
मिल न पायी नीदों की सौगात, तुम्हारे बिना।

मौसम सुहावन ने इशारों में बुलाया मगर, 
हो न पायी दोनों की' मुलाकात, तुम्हारे बिना 

खिड़कियों से झांके अकेले जब वो पाए हमें, 
आकर सितारों ने दिया साथ, तुम्हारे बिना।

चुप रहने की आदत को छीना तुमने पहले ही,
हम करते रहे सपनों में बात, तुम्हारे बिना।

रात की रानी खिल, हवाओं को महकाती रही, 
छेड़ती रही हमको बिना बात, तुम्हारे बिना।

आसमां से सज धज नीचे लगी आने चांदनी, 
 भायी ना हमें चाँद की बारात, तुम्हारे बिना।

बादल घुमड़ आये मगर 'देव' तरसाये हमें,
इस जगह पर न किये वो बरसात, तुम्हारे बिना 


 - सत्य देव तिवारी, एडवोकेट 

   *****

३० 
उम्र 

उम्र है कि ये बिना मांगे ही मिलती है। 
उम्र है, बढ़ो या ना बढ़ो, मगर बढ़ती है।
उम्र जिंदगी की लम्बाई नापती है। 
उम्र जिंदगी को खण्डों में बांटती है। 
जीवन की दिशा व दशा बदलकर, 
उम्र वर्गों के अनुसार ढालती है। 
उम्र है, जीवन की अवस्था बदलती है। 
उम्र की पृथक कई अवस्थाएं हैं।  
उन्हें जीने की अलग व्यवस्थाएं हैं। 
बचपन, कैशोर, यौवन, अधेड़पन  
बुढ़ापा; सबकी अपनी प्रथाएं हैं। 
उम्र है, खलती है, जब पाँचवेंपन में चलती है। 
खिलती कली सा महकती थी। 
चढ़ते सूरज सा चमकती थी। 
कितने मित्र, रिश्ते व नाते होते, 
जब चढ़ाई पर डग भरती थी। 
उम्र है, सब दूर होने लगते, जब ढलती है।  
तब चाहती थी, जल्दी जल्दी बढ़े। 
अब चाहती है कि ये कैसे थमे। 
ऊंचाई से जब नीचे देखती है, 
चाहती वही उम्र कोई फिर दे दे। 
उम्र है, गयी उम्र पुनः पाने को तरसती है।  
उम्र छोटी हो तो प्यार पाती है।  
बड़ी होने पर सत्कार पाती है।  
आखिरी पड़ाव में आकर उम्र, 
अपनों पर खुद को भार पाती है।  
उम्र है, छोटी आगे, बड़ी पीछे को देखती है। 
जिंदगी उम्र-भर उम्र से लड़ती है। 
तूफानों में भी उम्र चुपचाप चलती है। 
गड़बड़ी में लोग उम्र को दोष देते, 
जबकि माया जिंदगी को ठगती है।  
उम्र है, सांसों के थमने पर ही थमती है। 
जीतना नहीं, उम्र को जीना है। 
कहीं हो रस निचोड़ के पीना है। 
उम्र को जीने की कला आ जाये, 
उम्र का हर स्तर एक नगीना है। 
उम्र है, जी भर जिओ, जिस रूप में मिलती है।   

 
३१ 


हालात के चलतेजवानी स्यापे में की। 
तुमने भी हर बातखुद के मुनाफे में की। 

होते रहे तुम्हीं, हमारे आगे पीछे, 
मैंने इश्क भी जानो लर्रा लापे में की।

कहते हो बूढ़ा हुआइश्क के काबिल नहीं,  
इश्क की शुरुआत ही, हमने बुढ़ापे में की।

अभी तो ये बच्चा है, अक्ल का कच्चा है,   
दिल ने इश्क तुम्हारे, रूप के झांसे में की। 

कह लो बेशक दीवाना हो गया है बुड्ढा, 
इश्क रखकर भी जब कि, दिल को आपे में की।  

करते भी क्या! अब, उड़ गए रंग बालों के, 
छुपा के भीतर तभी, इनको साफे में की।  

लगा उठने बवंडर, दिल में उल्फत का 'देव',
उड़ा न ले जाए कहीं, खुद को झाँपे में की।


 ******


३२ 

बुढ़ापा आया

छिनने लगा इश्क का साया, बुढ़ापा आया। 
चाँद को देख, चाँद घबराया, बुढ़ापा आया।  

कायम देखते कभी अब भी मन की तरुणाई। 
तन को पर थोड़ा आसक्त पाया, बुढ़ापा आया।

भाती अब भी खूबसूरती पर धुंधली दिखती, 
आखों पर धुएं का जाला छाया, बुढ़ापा आया।
 
नहीं मानती ये जीभ अभी भी लपलपाती, 
पर घी, नमक, चीनी ने डराया, बुढ़ापा आया।

दांत बेवफा हुए सोचा खा लेंगे मेवा मलाई, 
कम्बख्तों ने नसें जमाया, बुढ़ापा आया।

हो गए रहने को मजबूर, रंगीनियों से दूर,
बालों का रंग बहारों को भगायाबुढ़ापा आया।

खुद तो देर तक सोते मगर सुबह सैर के लिए,
बच्चों ने हाथ में छड़ी थमाया, बुढ़ापा आया।


दिल ही तो है, कभी कभी धड़कने लगता है,    
पर इश्क में भी भजन ही गाया, बुढ़ापा आया। 

चाहते हैं अपने भी कि जल्दी बेबाक हो जाए, 
अब तक जो कुछ भी कमाया, बुढ़ापा आया।

****

मैं रोबॉट नहीं हूँ।

जब कोई ऑनलाइन अकाउंट खोलता हूँ।  
झूठ बोलना पड़ता है 'मैं रोबॉट नहीं हूँ। '
कैसे कहूँ, मैं रोबॉट नहीं हूँ। 

दिल को कृत्रिम यंत्र धड़का रहा है। 
आँख, प्लास्टिक का लेंस फड़का रहा है।
होंठ, नकली दांत लिए मुस्कुरा रहा है।  
कुदरती तौर से फिट फाट नहीं हूँ। 
कैसे कहूँ, मैं रोबॉट नहीं हूँ। 

घुटना को धातु का हिन्ज मोड़ रहा है। 
सांसों को कश वाला पफ छोड़ रहा है। 
कैप्सूल के सहारे खून दौड़ रहा है। 
जिंदगी चैन से सोये, अब वो खाट नहीं हूँ। 
कैसे कहूँ,  मैं रोबॉट नहीं हूँ। 

छड़ी का सहारा लेकर चल पाता हूँ। 
खाया हुआ, दवाई खाकर पचाता हूँ। 
कैलकुलेटर से हिसाब लगाता हूँ। 
अपनी ही उलझनों का काट नहीं हूँ। 
कैसे कहूँ, मैं रोबॉट नहीं हूँ।
 
सिर पर नकली बाल रोपाया हूँ। 
कानों में सुनने की मशीन घुसाया हूँ। 
इन्सुलिन के लिए सुई लगाया हूँ। 
डिस्काउंट पर चल रहा, खरा नोट नहीं हूँ। 
कैसे कहूँ, मैं रोबॉट नहीं हूँ। 
 


   *******

३३ 
 
प्यार की आ के, बूंदों के रेले, मेरे दिल से खेले।
आये बड़े ही, जिंदगी में झमेले, मेरे दिल से खेले ।

मिलते वो जब भी, होता दिल अपना, खुशियों से गदगद,
मिल के झुरमुटों में, मुझसे अकेले, मेरे दिल से खेले।

हरदम ही अपनी, सुनाते रहे, फटेहाली का रोना,
रखे पास थे वे, पैसे ना धेले, मेरे दिल से खेले ।

बोले वे मुझसे, 'है प्यार बेसुमार', कितनी ही बार,
कभी न कहा कोई सौगात ले ले, मेरे दिल से खेले ।

करते थे संतोष, लेकर आँखों से, व्यंजनों का स्वाद,
दुकानों पे पड़े, पकवानों के मेले, मेरे दिल से खेले।

उल्फत तो जताये, चालाकियां मगर, फिर भी ना छोड़े,
अपनी मुसीबत, मेरी ओर ठेले, मेरे दिल से खेले ।

कर जाते कभी, शरारत वो बनकर, 'देव' नन्हें से नटखट,
करनी सब उनकी, हम्हीं ने झेले, मेरे दिल से खेले ।


३४ 

इस दिल को ना, सख्त किया होता।
कोई आकर, लूट लिया होता।
जाने किस किस पर ये मरा होता,
कमजोर कहीं, अगर हिया होता!
आ जाता हक जमाने जमाना,
थोड़ा सा भी, नरम जिया होता।
भटका देते राहें बेईमान,
जिंदगी फिर कैसे जीया होता!
किस तरह से आ पाते तुझ तक,
किस तरह मेरा तू पिया होता!
टूट जाता अगर कहीं पे ये,
टूटे दिल को कैसे सिया होता!
फिरता दिल के, लिए टुकड़े 'देव',
तुझको लाकर, क्या दिया होता!



३५
 
कैसे कह दें कि हमारे वे हबीब न थे।
बात इतनी थी कि पाने के तरकीब न थे।

मिलाते क्योंकर, वो ताल से ताल?
हम उनके अगर, बहुत करीब न थे।

हमारी अटपटी बातों से लगा होगा,
उनको कि हम उनके रफीक ना थे।

अपने रस्ते, भटकाते खुद ही क्यों ?
बहकाने वाले, अगर रकीब न थे।

ख्वाईशें तो उनकी, कर देते ही पूरी ;
किसी तौर से, हम भी गरीब न थे।

खुदा को तोहमत दे के झाड़ लें पल्ला
क्यों भला, इतने भी खोटे नसीब न थे।

उनकी यादों में, गुजारें जिंदगी सारी,
जियें अकेले, इतने भी शरीफ न थे।


३६ 


आज तो बड़े खास लग रहे हो। 
दिल के आस पास लग रहे हो। 
माथे, सूरज सा बिंदी लगाए,   
चमक रहा आकाश लग रहे हो। 
सीधा सादा सा रहते थे पहले, 
सज धज कर बिंदास लग रहे हो। 
खिल रहे हो कुछ इस प्रकार से कि,  
फूल लदे अमलतास, लग रहे हो। 
तुम्हारे आने से मौसम बदला  
यहाँ लाये मधुमास लग रहे हो।
जिसे सहज समझना हो मुश्किल,
जासूसी उपन्यास लग रहे हो।   
कहीं तो क़यामत लाओगे ही, 
आज तुम अनायास लग रहे हो। 




गुल की पंखुड़ी कहूं कि तुझे शबनम कहूं!
कि मुहब्बत की बारिश का झम झम कहूं!
तू ना होती, बैठ गया होता दिल कबका,
दिल को धड़काने काक्यों ना दमखम कहूं।
मीठी तू इतनी, मीठी हो गयी जुबान,
जी चाहता रसगुल्ला या चमचम कहूं।
दिल में रहती समायी, हरदम इस तरह,
जान कहूं तुझको कि जानूं हमदम कहूं।
जिंदगी लगी गाने, तराने इश्क के,
उल्फत का साज कहूँ कि सरगम कहूं। 
जुड़ गए हैं तार मन के, कुछ इस तरह से,
करता इश्क तुझी से, दिल, हरदम कहूं।
मिल गयी दिल के धार की गहराई में,
गंगा-जमुना का होगा, सच संगम कहूं।


३७ 

डाला ऐसा जादूरंगरेजन ने। 
दिल किया बेकाबूरंगरेजन ने। 
सीधा सादा हुआ करता था ये,
बनाया छैला बाबू, रंगरेजन ने।
रेगिस्तान सा सूखा था दिल बंजर, 
हरा कर दिया टापू, रंगरेजन ने।
खड़ी थी गाडी दिल की, तेल बिना 
किया उसे है चालू, रंगरेजन ने।
मिलाकर रूप में नशा इश्क का,
पिला दिया है दारू, रंगरेजन ने।
हुआ जबसे उसका, कब्ज़ा दिल पर,
कर्फ्यू  किया है लागू, रंगरेजन ने।
कभी रंगों में डूबा, 'देव' ये दिल,
नाव बना दिया बाजूरंगरेजन ने।


३८ 

आज फिर देर से आया, झूठे कहीं के।
तू दिल में क्या छुपाया, झूठे कहीं के।
होंठ के दाग नहीं तो कमीज पर  क्या है?
लाल निशान ये लगाया, झूठे कहीं के।
पीने को जिधर जाते, आ रहा है रस्ते,
पान यूँ ही नहीं चबाया, झूठे कहीं के।
रहती पगार जस की तस, महीने की अब भी
घंटे कहता और लगाया, झूठे कहीं के।
कितना हो जाता पेट, खास जब पकाया
टिफीन दूना भरवाया, झूठे कहीं के।
खाली तेरे बटुए में, सुबह थे सात हजार,
पेट्रोल कितना भरवाया, झूठे कहीं के?
किये हुए फोन की सूची से, एक है गायब,
नंबर ये किसका मिटाया, झूठे कहीं के।



३९ 
दिल दुखाने का हसर रखो, कोई बात नहीं।
हाथ घावों पर अगर रखो, कोई बात नहीं।
चाहा मैं तुम्हारे लिए, खुशियों का आलम, 
गम मेरे लिए मगर रखो, कोई बात नहीं।
हममें है कूबत बड़ी, दर्द ढोने की भारी,  
बोझ कितना भी जबर रखो, कोई बात नहीं।
चाहत तुम्हारी पैसा, मतलब की खातिर, 
मेरी जेब पे नजर रखो, कोई बात नहीं। 
चल के राहों में तुम्हारी, पांव लहूलुहान, 
कांटे बिछा के डगर रखो, कोई बात नहीं।
कदमों में तुम्हारे ही, मिटने को तैयार,  
तबाही के लिए कहर रखो, कोई बात नहीं।
जायेंगे तुम्हारे सिवा हम न कहीं और,
पीने के लिए जहर रखो, कोई बात नहीं।

४० 

चन्द यारों का साथ हो, पीने का मजा और।
जब रात की शुरुआत हो, पीने का मजा और।
सूरज ढल चुका हो, पसर रहा अँधेरा हो,
सितारों की बारात हो, पीने का मजा और।
खाने का सामान हो, मुंह चलता रहे साथ,
नाश्ता और सलाद हो, पीने का मजा और।
क्या कुछ चल रहा है, अपने दोस्तों के साथ, 
चर्चा में हालात हो, पीने का मजा और।
फुर्सत की घड़ी हो, कह्कसों की फूलझड़ी हो,
झंझटों से निजात हो, पीने का मजा और।
हल्का हल्का सा शुरूर, 'देव' आये तो जरूर,
नशा अपनी अवकात हो, पीने का मजा और। 
ढलक जाय जो जाम में, शीशे को हो गरूर,   
बढ़िया भरी शराब हो, पीने का मजा और।



४१ 

खींच ले जाती रोजाना, पीने की लत।
पीने वाले को मयखाना, पीने की लत। 
कभी ख़ुशी, कभी गम में, पीने का कोई,
ढूंढ ही लेती है बहाना, पीने की लत। 
बहके बहके से रहते, शेर कहते जनाब,
बनायी मिजाज शायराना, पीने की लत।
उनकी यादों का आना, और फिर सताना, 
चाहे लगा कर के भुलाना, पीने की लत।  
लगा था यूँ शुरू में, मिल गई कोई नीमत,
कर देगी समां को सुहाना, पीने की लत।    
लड़खड़ा जाते कदम, कभी भी, कहीं भी, 
छीनी होश का ठिकाना, पीने की लत।
बिगाड़ी सेहत का हाल, बनायी कंगाल, 
कर दी मुश्किल संभाल पाना, पीने की लत।   


४२ 

मैंने भी दिया है अर्जी, मेरी सरकार सुनो।
न चलाओ अपनी मर्जी, मेरी सरकार सुनो।

दिल की बात कही दिल से, सुन लो तो एक बार,
न समझना इसको फर्जी, मेरी सरकार सुनो।

ऐसी भी नहीं खता थी, रख लो लगाके दिल से,
क्यों हो रूठे इस कदर जी, मेरी सरकार सुनो।

मुंह मोड़ रहे हो ऐसे, 
चक्कर में तुम खुद के,
भारी न पड़े खुदगर्जी, मेरी सरकार सुनो।

खाये थे साथ चलने की, याद करो वो कसमें, 
अब जाते हो क्यों मुकर जी, मेरी सरकार सुनो।

निरर्थक ही आजकल क्यों? बातों से तुम मेरी,
हो रखने लगे एलर्जी, मेरी सरकार सुनो।

तुम दूर चले भी जाओ, न करेंगे हम शिकायत,
देते रहना बस खबर जी, मेरी सरकार सुनो।



४३ 

चाय की प्याली

पकड़ी है जब से हाथ, चाय की प्याली।
आ रही निभाती साथ, चाय की प्याली।
चाहने लगता है मन, मिल जाए फ़ौरन,
हर दिन होते ही प्रात, चाय की प्याली।
जगा देती है दिल में, थोड़ी ताजगी,
सुस्ती को देकर मात, चाय की प्याली।
हमेशा निभाती साथ, बनकर हमसफ़र,
देती सफर में स्वाद, चाय की प्याली। 
पिलाकर कई बार, संग में दोनों को,
बना दी हमारी बात, चाय की प्याली।
जब थमाने को बढ़ाये, हाथ तो छलकी,
हमको वो पहली बार, चाय की प्याली।
देती है एकाध बार, रोज प्याली भर,  
जिंदगी की सौगात, चाय की प्याली।


४४ 


२२ १ २२  २२ २ २२ २

यूँ तो अकेले भी, हम राह चल लेते हैं।
होते हो तुम भी तो, संग मचल लेते हैं।

रह के तो अकेले कभी, लड़खड़ा जाते हैं,  
तुम निकट होते हो, कदम संभल लेते हैं। 

मुस्कुरा लेते हैं, यूँ हम अकेले भी,
तुम साथ होते हो, मिल के हंस लेते है।

सुनाते तुम्हारे बिन, मन की हवाओं को,
पास तुम होते हो, बातें कर लेते हैं।

गुनगुनाते अकेले भी गीत जिंदगी के, 
संग तुम होते हो, सरगम भर लेते हैं।   

चलते अकेले हम, तूफानों में कभी, 
तुम खड़े होते हो मौसम बदल लेते हैं।

काट लेते अकेले भी, वक्त कुछ गुन बुन के,
तुम बगल होते हो, हम बहल लेते हैं

खुशियां ढूंढ लेते, अकेले भी हम 'देव'  
तुम जो मिल जाते हो, जश्न कर लेते है।


एस. डी. तिवारी 


 
२१२ २२२ २२२ १२
  

              ७ 

देख अपने लखन को जुड़ाने लगी। 
कष्ट चौदह बरस के, भुलाने लगी।
उर मिला, उर्मिला का, सदा यूं रहा, 
उर्मिला उर मिला, खिलखिलाने लगी।  
विरह में थी काटी वो चौदह वरष, 
नैन पग पग, पिया के, बिछाने लगी।    
खो दिया जिंदगी की, सुनहरी घडी,  
फल मधुर हर पल का वो पाने लगी।  
वह जली थी बहुत मगर अब गम नहीं 
घाव आभा से पी के मिटाने लगी।
बीत कैसे गया, रह अकेले समय, 
याद करके व्यथा, सब बताने लगी। 
सींच डाली फुलवारी, हृदय शुष्क की,   
कुम्हलाये सुमन को खिलाने लगी। 
'देव' दिल के बुझे सब दीये जल गये,   
जला ज्योती दिवाली मनाने लगी। 


   ८ 

बिछुड़ प्रियतम से वो, घबराने लगी।
उर्मिला मन ही मन, अकुलाने लगी। 
वन गमन को लखन, जब अवध से चले  
संग जाने की युक्ति लगाने लगी। 
साथ जाना सजन के, मना हो गया 
सफल तप हो; स्वयं को तपाने लगी।  
बीत चौदह बरस, किस तरह पायंगे,  
सोचती रात ऑंखें, जगाने लगी। 
देखती व्योम को अंगना में खड़ी,
चांदनी में अकेले, नहाने लगी। 
आस मन में लिये, भानु उगेगा पुनः
घोर तम में लिये, दिल जलाने लगी।  
दिन काटी विरह में, तपस्विनी बनी  
लखन सकुशल रहें, नित मनाने लगी।  

सत्य देव तिवारी, एडवोकेट


दिला दो हमको भी तलाक जी, वकील साहब। 
तुम्हारी जम जाएगी धाक जी, वकील साहब। 
बनाना केस तगड़ा कि बचे न कोई लफड़ा,
समझना न बात को मजाक जी, वकील साहब।  
बना लिए हैं दोनों ने, अपने अपने यार,
अपना रिश्ता हुआ बेबाक जी, वकील साहब।  
एक सौ पचीस लगा दो, हिंसा, दहेज लगा दो,  
दिला दो पचास साठ लाख जी, वकील साहब।
रोज वो चढ़ा के आता, घर में फसाद फैलाता,
सिखला दो शांति का पाठ जी, वकील साहब।    
चुराया था दिल वो, चोरी का इल्जाम लगा दो 
दे दूंगी मैं फीस ठीक ठाक जी, वकील साहब। 
तुला था वो लेने पर, जान निर्मोही जालिम, 
कह देना कोर्ट में साफ जी, वकील साहब। 
दलील कुछ ऐसी देना, शर्त सब मनवा लेना,
रखना अपनी ऊँची नाक जी, वकील साहब। 






222 222 222 2
जो कहता है तुमसे ये रब दोस्तो।
तुम करोगे बताओ वो कब दोस्तों।।

बीती जाएगी हर उमर की घडी,
कर पाओगे कैसे तुम तब दोस्तों।   

उसकी भी करते हो परवाह नहीं, 
खेले जाते हो खेले गजब दोस्तों। 

जमीं जाती खिसकती नीचे से यूँ,  
तुम जिए जा रहे हो बेढब दोस्तों। 

पुर्वजों का जो तुमने देखा सुना,  
क्यों न लेते हो उनसे सबब दोस्तों।  

सुनाओगे क्या 'देव' उसे वाकया,  
उपरवाला करेगा तलब दोस्तों। 


  *** 




मात्रा भारः 2५ 

मधुमास महक जाए, तो प्यार पनप जाता है।
सावन की घटा छाये, तो प्यार पनप जाता है।

पतझड़ विदा होते ही, कलियों के खिलते ही  
बहार दिल बहकाये, तो प्यार पनप जाता है।

सरसों के खेतों में, बीछे पीली चादर
जब भौंरा मंडराये, तो प्यार पनप जाता है।

लहर उठा के सागर, नैनों की भरे गागर 
संग दिल भी लहराए, तो प्यार पनप जाता है। 
 
माल या मेले में, मिलें दो अकेले में 
रूप सुन्दर लुभाये, तो प्यार पनप जाता है।

अदा कोई प्यारी, या दिल की बेकरारी   
जब मन को उकसाये तो प्यार पनप जाता है। 

लेकर कोई रौनक, देने के लिए ठंडक 
दिल में चला आये तो प्यार पनप जाता है। 







- सत्यदेव तिवारी, एडवोकेट

 *****


२२१ २२१ १२२ १२२ 
दुनिया नई एक, बसाने  चला हूँ।
मुहब्बत की राहबनाने चला हूँ।

महका दे कोईआकर के बगिया;
उल्फत के ही गुल खिलाने चला हूँ।

साथ मेरे चलेकदमों को मिला के;
पाने नई मंजिलें, अब चला हूँ।

खिलना मुझे हैफूलों के संग में;
फिजाओं से हाथमिलाने चला हूँ।

जली प्रेम की है, उजली लौ दिल में,
रौशनी राह में बिखराने चला हूँ। 

कोई साथ में हो, नहीं राह मुश्किल;
तोड़ सितारे गगन से लाने चला हूँ 

रुकना नहीं अब तो थकना नहीं है;
प्यार की मैं दुनिया सजाने चला हूँ।

  ****


डूबने को रंग में

एक दिन दे दे सजन, डूबने को रंग में।
धूप खिले, फूल खिले, आमों पर बौर लगे,
मौसम हसीन लगे, ऋतु बसन्त में। 
एक दिन ...

लाल लाल गाल है, लाल ही गुलाल है, 
हरी मेरी चुनरी, उड़ी हवा के संग में।
एक दिन ...

खेलूंगी होली खूब, रंगो में भीग भीग, 
लाजो लिहाज छोड़, होली की उमंग में। 
एक दिन ...

भर पिचकारी रंग, डालूंगी आज सजन, 
हर मतवाले पर, होली की हुड़दंग में।
एक दिन ...

तू जिस रंग ढला, मैं भी तेरे संग ढली, 
आज भी लगा दे पिया, रंग मेरे अंग में।
एक दिन ...




वो गुजरा हुआ जमाना, जरा याद करो जी।    कहो जी याद है क्या!
यहाँ तक साथ चले आना, जरा याद करो ना।

हाँ जी /  वो भी याद है हमें। 

नोंक झोंक करना, सिनेमा की बातें सुनाना 
संग संग हंसना हँसाना, जरा याद करो ना।

खड़े रिमझिम में दोनों, थे छतरी में  तुम्हारी 
क्या था मौसम सुहाना, जरा याद करो ना। 

पहली बार हम मिले जब, दोनों ही थे बेगाना 
करने में बात हिचकिचाना  जरा याद करो ना।

लिए हाथ में  फूल, हमारा इंतजार करना   
तुम्हारा देरी से आना, जरा याद करो ना।

हाथ थाम के चलना, घंटों गप्पें लड़ाना  
संग मूंगफली का खाना, जरा याद करो ना।

शुरू हो जाने पर, मिलने का सिलसिला,  
हमको दीवाना बनाना, जरा याद करो ना।

रहे रूठे कई दिन  मिलने भी न आये  
आकर खुद ही फिर मनाना  जरा याद करो।

विदा होते समय, ओझल हो जाने तक  
 हाथ कई बार हिलाना, जरा याद करो ना। 

हमको सताना, करना हरकतें बचकाना
बाइक की चाभी छुपाना, कहो जी याद है तुम्हें।  
 
मेंहदी 
सिनेमा देखने जाना घर से करके बहाना 
बड़े भईया का मिल जाना 


बारात के आने से पहले 
पार्लर को जाना  जरा याद करो।
मेहँदी कोमकुम लगाना 
फेरे लगाना 
पुराना 
घंटों बिताना 
टिफ़िन सजाना 



२६ 
भूले तुम्हारे प्यार में, सारे ज़माने को।
सब कुछ लुटा दिए हम तो, तुम्हे बस पाने को।

देख कमल की पंखुड़ी सी, तुम्हारी आँखों को,  
हो गयीं ये आँखें आतुर, उनमें समाने को।

तुम्हारी मस्त आँखों कापी लिया मदिरा इतना
मतवाला बनाया तुमने, अपने दीवाने को।

तुम्हारे होने की खुशबू, घुलती हवाओं में, 
खेलने लगती दिल से, हमें आजमाने को।

ढूंढने लगे हर पल, जगह पा जाएँ कोई 
मौका मिले कुछ अपनी, सुनने सुनाने को।

गूंजती रहतीं कानों में, तुम्हारी बातें वो, 
चाहता नहीं ये दिल, कभी भी भुलाने को।

रोतीं जब तुम्हारी आँखें, कहीं भी किसी भी पल,
संग में ये आँखें होतीं, आंसूं बहाने को।


   *****


प्रस्तुति : सजल 2

मात्रा भार :  15

जीवन सूना कर गए हो। 
तुम तो हरि के घर गये हो।

तकते नित पंथ तुम्हारे, 
नयनों में जल भर गये हो। 

पीर है एकाकीपन का, 
गर्व पर, जिस डगर गये हो। 

वतन की खातिर जीये मरे,
नाम कर तुम अमर गये हो।  

मां भारती के चरणों में, 
मस्तक अपना धर गये हो।

जय पाऊँगी विरह पर मैं, 
तुम अरि से लड़, तर गये हो।

रखता देश नाज बहुत है, 
तिरंगा ओढ़कर गये हो।  

सत्यदेव तिवारी, एडवोकेट




२२




२३ +२ 
आएगा वो दिन मुझे जब, चाहने लगोगे
मकान बेरुखी के कच्चे, ढाहने लगोगे 
चले  हो बाजार में बिन, सोचे मुहब्बत पाने।   
पाओगे फरेब की ही, सजाई हुई दुकानें। 
खा लोगे धोखा जब तुम, हमको बुलाओगे 
मिलेगी जो चोट गहरीकराहने लगोगे 
सच्ची मुहब्बत कहाँ? मिलती इस ज़माने में,
होती है मुश्किल कितनी प्यार को निभाने में 
प्यार की सच्चाई को जब, तुम समझ जाओगे, 
प्यार की हर बात मेरीसराहने लगोगे 
बहती मुहब्बत दिल के, दरिया में तुम्हारे लिए
खिलते हैं फूल मन की, बगिया में तुम्हारे लिए,
झांकोगे दिल के भीतर सही मायने में,  
प्यार की गहराई मेरी, थाहने लगोगे।  

मुहब्बत के सलीके सभी, निबाहने लगोगे





  *****



पतझड़ ने बहारों को रुलाया है।
तपते रवि ने धरती को सताया है।

गुजरता नागवारगर्मी का आना 
हंसती बहती नदियों को सुखाया है।

ढक कर के अच्छे भले, चमकते हुए
कोहरे ने सूरज का दिल दुखाया है।

गिरी बर्फ ने बड़ी निर्दयी होकर   
पर्वत के पेड़ों को तले दबाया है। 

बादलों ने आकर जब भी घेरा है,
आसमानों में अँधेरा  छाया है।

मेघ जब बरसने का मन बनाते 
हवाओं ने दूर उन्हें उड़ाया है। 

जिसके दम पर चमक भरता है   
चाँद ने उसी पर ग्रहण लगाया है। 

रातों ने अपने बस संग की खातिर 
सितारों को सारी रात जगाया है। 


धरती सूरज से मुख मोड़ करके 
अँधेरा खुद ही बुलाया है। 





हवा पर सवार बादल चला आया है। 
देख बीहड़ भी रस में प्रेम के नहाया है।

सरि सरवर सुख की स्वांस लेते, जब 
घन घेर घनन घनन घनघनाया है। 

मेघों के छंट जाने से, मगन हुआ
नीलाम्बर ने इंद्रधनुष उगाया है।

पहाड़ों को ठण्ड से कांपते देख 
सर्दी ने चादर बर्फ की ओढ़ाया है। 

कोहरा को राह से धकेल देने पर  
गगन में दिनकर मुस्कराया है 

सर्दी बेदर्दी के चले जाने पर 
बसंत ने चमन को खिलाया है। 

पर्वत पर हिम के पिघलने से प्रसन्न   
प्रपातों ने मंगल गीत गाया है। 

गर्मी के सागर से जल ले जाने पर  
बादलों में फिर जोश भर आया है 


अकेले रात अँधेरे के गम में ना डूबे 
आकर के तारों ने रंग जमाया है। 




२१२२ २२२  २१२२ २१२२ = २७   
 प्यार ऐसा होता है, दिलों को जोड़ देता है।
नफरतों की आँधियों को वापस मोड़ देता है।

मिल जाए प्यार किसी का, सबकी चाह होती है।  
प्यार से ही जिंदगी की, आसान राह होती है।  
प्यार रुकी जिंदगी मे, ऊर्जा छोड़ देता है। 

प्यार करने वालों की, कुछ बात अलग होती है। 
प्यार से मिलें किसी से, मुलाकात अलग होती है। 
शहद भर कड़वाहटों की, दिवार तोड़ देता है।
 
प्यार से तो जिंदगी का, रूप संवर जाता है।   
देने का ही भाव और, विस्वास बढ़ जाता है।  
प्यार गिला व गरूर का गुब्बारा फोड़ देता है। 





२०  
वो रोके न रुका, बारिश का पानी।
तीव्र बहता रहा, बारिश का पानी।

अपने ही मन कारिमझिम वो बरसा;
मन लुभाया बड़ा, बारिश का पानी।

वो तर कर गया, मुझे भिगो कर गया;
पर तनिक ना थमा, बारिश का पानी।

शोर करता हुआ, जोर भरता हुआ;
किस नदी को चला, बारिश का पानी।

हम देखते रहे, मन मसोसते रहे; 
किन्तु बहता गया, बारिश का पानी।

बरसता है प्यार, ना रुकता है प्यार;
जैसे कि बरसता, बारिश का पानी।

रख लेना बड़ा, करके दिल का घड़ा;
काम आएगा पड़ा, बारिश का पानी। 






बहारों के जाने का आभास क्यों है?
बेचैनियों का पल आस पास क्यों है?

फिजां जो छेड़ जातीं थी आके
मुंह मोड़े हुये अनायास क्यों है?

इन आंखों में भरा है पानी इतना
मन के भीतर फिर प्यास क्यों है?

खींजा जो रहती थी दूर दूर मुझसे
आज बन गयी मेरी खास क्यों है?

जो दिन चहक रहे थे कल तक
आज इस तरह से उदास क्यों है?

सितारे भी मद्धम से दिखते 
लगता झुका हुआ आकाश क्यों है?

यार मुझसे दूर चला गया होगा
सारे शहर में यह कयास क्यों है?


आकाश मधुमास 



वंशवाद की ढाल सियासत। 
कैसे हो खुशहाल सियासत।

कहती अपने को जन प्रतिनिधि,
राजा भांति निहाल सियासत। 

अपने घर भर भर कर निसदिन,   
होती मालामाल सियासत।

माल हड़पने राष्ट्र का सब,   
चमचे रखती पाल सियासत। 

स्वयं से फुरसत न जो करती, 
जनहित का भी ख्याल सियासत। 

भर्त्सना का प्रभाव दिखे , 
रखती मोटी खाल सियासत।

कोई कुछ भी कहता, अपनी  
रांध गलाती दाल सियासत।

सत्ता में लाने वंशज को  
बुन लेती है जाल सियासत।

***





खेलेंगे होली

 

टेसू फूलेकोयल कुहुकीमन महकाती बयार डोली। 

ढोल बजातेफगुआ गातेआई सहेलियों की टोली। 

 

मन के रंग उतार कूंची सेरख दिया दहलीज पे ऐसे,

उतरी निखरी इंद्रधनुष बनसुन्दर सतरंगी रंगोली। 

 

घर पर बने पकवान अनेकछोड़ जाने को जी ना चाहे,  

खड़ी सहेलियां ले जाने को, खेलन को संग री होली।  

 

मीठे और गुजिया के साथदेवर भाभी के रिश्ते मधुर,  

होली के दिन साली जुट गयीजीजा जी से करने ठिठोली।  

 

मन गुलशन में रंग बिरंगे, मुस्काते फूल उमंग भरे,

रंगों में डूब इस दिन जी भरखेलेंगी सखी हम होली। 

 

बीता साल पूरा तो आया, आनंद लेकर यह त्यौहार, 

खेलेगी ना रंग पिया से, फगुआ में तू कितनी भोली! 

 

वसुंधरा पे मस्ती छाई, उमंग हवा के झोंके लाई, 

भीगेगाजो मिलेगा छैलाकढ़ ले तू घर से हमजोली। 



    
बन गयी है खुशबुफूलों के जान की दुश्मन। 
चुराकर हवा भी हो जाती, आन बान की दुश्मन। 
फैलते ही सुगंधमडराने लग जाते हैं भौंरे
उड़ जाते चूस कर रसबने सम्मान के दुश्मन।
चिढातीं तितलियाँ भीअपने रंगो को बिखेर
बिन बात हो जाती,  उनकी शान की दुश्मन।
कभी होता है जीसुनने को भौरों के गीत
लेने  देतीं मजातितलियाँ तान की दुश्मन।
चाहत तो होतीलुटा देबहारों को सब कुछ
पहले ही तोड़ लेता, कोई अरमान का दुश्मन।
निचोड़ कर शीशी में इतर बेचने के लिए 
गंधी भी बन जाता है उनकी जान का दुश्मन। 
माली भी मुआ खिलते हीगड़ा लेता नजर
जवां होते ही ले जाता, है दुकान पे दुश्मन। 



"मापनी - 22 22 22 22 , 22 22 22 "

मेरा मुक्तक -
माँ के आँचल में ममता की, छाँव हुआ करती है। 
निश्छल आश्रय मिले जन्नत सा, ठाँव हुआ करती है। 
जीने की अमिय सुधा, होती, माँ के आंचल में ही, 
हर मुश्किल से पार लगाने की, नाव हुआ करती है। 
गांव पांव बिछाँव बिखराव भाव चाव  बर्ताव 




लिखा जो मुकद्दर में वो ही मिला है।
किसी से मुझे अब न कोई गिला है।
बढ़े थे कदम दर तक, घर के तुम्हारे,  
दुनिया से बाकी, हमें क्या सिला है।  
उठ कर बादलों तक, नीचे ही आतीं, 
बूंदों का नन्हीं, यही सिलसिला है। 
आने पर क़यामत, ढहना ही होता,  
कितना भी मजबूत, कोई किला है। 
बगिया में होती, हैं कलियाँ हजारों 
किस्मत कहाँ फूल हर एक खिला है। 
इधर आहिस्ता से रिस रहा है लहू, 
हमलों से तुम्हारे, दिल ये छिला है। 
दोस्त बन कर चले, हम 'देव' संग में,   
मुसीबतों का साथ में काफिला है।




" सब कहते हैं पगली उसको, वो मुझे दिवानी लगती है। "
दर्द छुपाये आँखों में वो, दुख भरी कहानी लगती है। 
प्यार लुटाया उस पर इतना, मिले चैन ना उससे बिछुड़े  
बहती रहती यादों में निस, सरिता का पानी लगती है। 
बीत गये जाने के वर्षोँ, अब तक नहीं मगर वह लौटा,    
उसके वो खोने की बातें, कहने यूँ जुबानी लगती है। 
खोकर खो बैठी उसको वो, होश, बाट जोहे दुखियारी,    
तकती है राहों को खाली, हरकत बचकानी लगती है। 
उसके बिन जीना फिजूल सा, मानो जैसे बेजान हुई,     
खोज रही भरी जोश में वो, बिजली तूफानी लगती है। 
मन में रखती अदम्य साहस, सनक भरे है पा लेने का,   
आज नहीं तो तलाश पूरी, कल होगी ठानी लगती है। 
फिरती दर दर बिछुड़ी उससे, भूख प्यास की परवाह नहीं,  
रोती पीड़ा में ममता की, विरल ही निशानी लगती है।   



वो अंजानी लड़की

कलियों सी खिल जाती, वो इठलाती थी
अंजानी थी, फिर भी मिलने आती थी।
रुन झुन करती, बजती जब पायल उसकी
मधु सी मीठी, कानों में घुल जाती थी।
घर का द्वार खुला रह जाता, जब जब भी
उड़न परी सी, वह घर में घुस जाती थी।
इत्र न फूल लगाती, पर खुशबू उसकी
मेरे घर की, मंद हवा महकाती थी।
बाँहों में बंधी, आलिंगन पाश मुझे
रेशम ढेरी का, एहसास कराती थी।
कह जाती दिल की, पर जब तुतलाती थी
समझ न आती, फिर भी अतिशः भाती थी।
कुछ काल अभी संग, व्यतीत न कर पाता
उसकी माँ आ, बांह पकड़ ले जाती थी।
मिल पाता ह्रदय को, आमोद जब तलक
गावों की बिजली सी, गुल हो जाती थी।
उससे मिलना, छुप भी पाता तो, कैसे
मेरे वस्त्रों में, दाग लगा जाती थी।

सरगम सी वो शर्माती, इठलाती थी

     ---    एस० डी० तिवारी 


एक गजल
यूँ वक्त तो चलता रहा, हम दोनों जमे रहे।
सूरज रोज ढलता रहा, हम दोनों जमे रहे।
साथ में रहने के लिए, मेहनत भी कम न किये,
पसीना भी बहता रहा, हम दोनों जमे रहे।
दरार डालने की बीच, हवाओं की कोशिश का,
सिलसिला यूँ चलता रहा, हम दोनों जमे रहे।
देख कर हम दोनों की, बेइंतहां मुहब्बत,
आसमान जलता रहा, हम दोनों जमे रहे।
आते जाते रहे वो, 
ताप, पतझड़ व बसंत,
प्यार अपना पलता रहा, हम दोनों जमे रहे।
बदल गयी दुनिया कितनी, दरख्त हो गए बड़े,
परिवार भी बढ़ता रहा, हम दोनों जमे रहे।
किसी अनजान धागे ने, बांध के रखा कसकर,
गांठ में बल डलता रहा, हम दोनों जमे रहे।



प्यार में ना लड़ो, 
समझो अखाड़ा नहीं।
प्यार बसावट है, कोई उजाड़ा नहीं।
मिल पाता है प्यार, देकर ही प्यार बदले,
देना होता है, प्यार का भाड़ा नहीं।
रट भर लेने से, छा जाये जो दिल पर,
प्यार होता है, कोई पहाड़ा नहीं।
होता ना इतना, प्यार जानो आसान,
खा जाओ तोड़ के, मीठा छुहाड़ा नहीं।
पाने को प्यार, देना होता है दिल,
पी जाओ पका कर, गरम ये काढ़ा नहीं।
प्यार में ही मिलती, मीठी प्यार की धुन  
जब चाहे बजा लो, है ये नगाड़ा नहीं। 
प्यार ही है रखता, बांध कर के प्यार को, 
रख सके कैद में, कहीं वो बाड़ा नहीं।
हलके रखे तो 'देव', क्या निखरेगा प्यार,
प्यार का वो कैसा, रंग जो गाढ़ा नहीं।
 

- एस० डी० तिवारी

उनके आते ही जाने क्यों, चाँद शर्माने लगा है।
लेकर सितारों का सहारा, खुद को सजाने लगा है।
मद्धम सी लिए रौशनी वो, चाँद था बिखराये हुए
पहले से ज्यादा 
आसमां, अब जगमगाने लगा है।
बदल जाय मौसम तो कोई, फर्क नहीं उनके ऊपर, 
चाँद है कि कई रूप बदल, खुद को दिखाने लगा है।
अपना रूप बदलना उसकी, है आदत में ही शामिल, 
या कि उनकी अदाओं से फिर, वो घबराने लगा है?
होते नहीं हैं वो कभी भी, पलकों से ओझल अपनी
फलक में देखते ही बादल, चाँद मुंह छुपाने लगा है।
चाँद बादलों में छुप जाये, या फिर आसमाँ में कहीं
रहना उनके अंजुमन में ही, दिल को भाने लगा है।
जिसका जी चाहे वो देखे, चाँद को ऊपर गगन में 
हमें यहीं देखने में चाँद, मजा अब आने लगा है। 




उंगली कभी प्यार, कभी क्रोध दर्शाती है। 
कभी कलम चलाती, कभी घोड़ा दबाती है।
समय पड़ने पर अस्त्र का काम करती, 
खुल के थप्पड़, बंध के घूँसा बन जाती है। 
खुद या किसी अपने को चोट लग जाय  
उंगली ही है जो की मरहम लगाती है। 
उंगली विद्युत् यंत्रों को संचालित करती, 
बड़े आधुनिक कंप्यूटर यही चलाती है। 
जब कोई उंगली उठ जाती उस ओर 
बड़े बड़ों की भी आँखों को डराती है। 

भरी महफ़िल में भी चुपके से उंगली 
किसी खास को इशारों से बुलाती है।
खिल जाता रंग पहन सोने की अंगूठी 
प्यार भरा सौगात पाकर इतराती है।
थिरक उठता तबला उँगलियों के जादू से  
वीणा की तार को भी ये झनकाती है।
किसी के चलने का सहारा बन जाती
आनन्द देती, जब प्रिय को छू आती है।
कितना बड़ा हो सकता है मोल इसका
एकलव्य की कटी एक उंगली बताती है।




अकेला रह जाता अगर प्यार नहीं होता।
उसे कैसे पाता अगर प्यार नहीं होता।
एक अनजान डगर पर अजनवी का हाथ
कोई कैसे पकड़ लेता अगर प्यार नहीं होता।
प्यार की अंगुली में सोने की अंगूठी
भला कौन पहनाता अगर प्यार नहीं होता।
किसी के गले के लिए कोई हीरे का हार
क्यों बनवाता अगर प्यार नहीं होता।
फूल भी पड़े डालियों पर ही सूख जाते
जुल्फों में कौन सजाता अगर प्यार नहीं होता।
महबूब की तस्वीर को शीशे में मढ़वाकर
घर में क्यों टांग लेता अगर प्यार नहीं होता।

आँखों का अनमोल पानी, अकेले में बैठ
यूँ ही कौन बहाता अगर प्यार नहीं होता। 


शिशु को उठाकर प्यारा सा मुखड़ा
कोई क्यों चुम लेता अगर प्यार नहीं होता।


टेलीफोन और फैशन का व्यापार 
कितना घट जाता  अगर प्यार नहीं होता।
भटक आवारगी में दिन काटना पड़ता 
कोई घर क्यों बसाता अगर प्यार नहीं होता।
अकेले में बैठ आँखों का अनमोल पानी 
यूँ ही कौन बहाता अगर प्यार नहीं होता।
इंसान को देख कर कोई इंसान 
भला क्यों मुस्कराता अगर प्यार नहीं होता।



नरम दिल वाला सबसे प्यार जताता है।  
जैसे पानी हरेक धार में जुड़ जाता है।
कड़क रुई के रेशे, लचक भी रखते  
तभी आसानी से सूता पुर जाता है। 
ऐंठकर नोक बनाये बिन, डालो अगर 
सुई के छेद में, धागा मुड़ जाता है।
मिले ओढने के लिये छोटा ओढ़ना  
सोने वाला स्वतः ही टिकुर जाता है।
पक जाने पर समय से नहीं तोड़ने पर, 
फल पेड़ से अपने आप गिर जाता है। 
कितना भी ऊँचा उड़ने वाला हो पंछी
घोसले में आये तो पंख बटुर जाता है।  
उड़ बिछुड़ सुर सिकुड़ 
गुरु के पास झुककर के ही रहने से,
शिष्य उसका स्नेह भरा गुर पाता है। 
 
मरे सांप से भी सुरक्षित तभी जानो  
जब उसका मुंह ठीक से थुर जाता है। 


***

पहली बार विदेश आया 

अपनी लिखी पुस्तक बेटे को दे आया 

बहु बहुत विद्वान थी 

अंग्रेजी उसकी महान थी 

उसकी पुस्तकों की शेल्फ थी 

उसी में अपनी पुस्तक भी सजा दिया 

बहु बेटे दोनों को बता दिया 

सोचा था उसके मित्र मेहमान आएंगे 

पूछने पर उनसे वे बताएँगे 

मेरे पापा की लिखी पुस्तक है 

कहकर गर्व से इतरायेंगे

फिर से जाने का अवसर मिला 

शेल्फ देखकर हुआ गिला  

पुस्तक शेल्फ से नदारद थी 
अंग्रेजी की पुस्तकों में हिंदी 
की पुस्तकों से वे शर्मा रहे थे 



तेरे प्रेम के तले 
मेरी उम्र ये ढले 
मन की चाह थी 
तेरे संग में चले 
सपने बुने जो हमने 
संग संग पले 



तनिक बता ऐ कविता मेरी, तुम चली कहाँ से आई हो! 
मन में मेरे हलचल मचाकर, चिंतन मेरी बढ़ायी हो। 

सोई थी तुम हृदय में मेरे, निकल पन्नों पर छाई हो। 
चिंतन का मंथन कराके, ज्यों छेड़ी कोई लड़ाई हो। 

हृदय में मेरे घुल मिल कर, बन परमानन्द समायी हो। 
कभी विकल कर कष्ट बढ़ा, मन की व्यथा जगाई हो। 

कभी चुलबुलेपन से अपनी, मन को बड़ी लुभाई हो। 
कभी तो चुटकुलेपन से तुम, सबको बहुत हंसाई हो। 

कभी मनोरंजन बन जाती, सखी तो कभी तन्हाई हो। 
कभी तुम तो नींद चुराती, होती कभी अंगड़ाई हो। 

प्रेम, योग, वियोग की तुम, अद्भुत कथा सुनाई हो। 
विरहन की जिह्वा पर बैठी, विरह गीत भी गायी हो। 

कभी कभी करुणा में डूबी, रोकर अश्रु बहाई हो। 
कभी दिलों के मधुर मिलन पर, बजती हुई शहनाई हो। 

पतितों के पापों को देख, रौद्र बहुत हो जाती हो। 
क्रोध में धर रूप भयानक, सबको फटकार लगाई हो। 

वीरों की गाथा, गुणगान, उठा रणभूमि से लायी  हो।  
वीभत्सता देखी खुले चक्षु, घृणा से ना अकुलाई हो। 

युद्ध, तूफान, प्रलय में तुम, डरी न तनिक घबराई हो।  
सृष्टि की हर रचना देखे, दृष्टि को दूरबीन थमाई हो।

रूप सज्जा देख किसी की, करती बहुत बड़ाई हो। 
स्वयं अलंकार के श्रृंगार से, सुंदरता पर इतराई हो।

खिड़कियों को मन की खोल, अन्तः प्रकाश दिखाई हो। 
ज्ञान विज्ञान की बातें करके, मानस तम दूर भगायी हो।  

कभी पातालों को खंगाली, अम्बर की नापी ऊंचाई हो। 
सूरज, चाँद, सितारों से मिल, आभा धरती पर लायी हो।  

कविता! तुम तो दर्पण बनकर, हमें प्रतिबिम्ब दिखाई हो। 
कभी दशा देख समाज की, अपने ही स्वयं लजाई हो। 

जीव की हर कृति, स्वभाव की, सहज अनुभूति कराई हो। 
अप्रकट भावों को भी ढाल, छन्दों की सरिता बहाई हो। 

देव-वाणी भी बन जाती, तुम राम कभी कन्हाई हो। 
बता तनिक ऐ कविता मेरी, तुम चली कहाँ से आई हो! 

       एस० डी० तिवारी 



भूल नहीं पायेगी कविता मेरी। 
मुझे नित बुलाएगी कविता मेरी। 
बातें बहुत सी हम कह ना पाए,  
चुपके कह जाएगी कविता मेरी। 
जाएँगी बहारें, मुरझाएंगे फूल,  
गुलों को खिलाएगी कविता मेरी।  
सूख जाएगी नदी बारिश के बाद,  

पर धारा बहायेगी कविता मेरी। 
मेरे दिल में जगी थी प्रीत कभी, 
जगत को बतायेगी कविता मेरी। 
उदास होगा, होकर तनहा कोई,  
संग तो निभाएगी कविता मेरी। 
कम पानी के कंकड़ सा ठहरे मन, 
संग अपने बहायेगी कविता मेरी। 
गहराई से डर के, जो बैठे किनारे, 
चेतना जगाएगी कविता मेरी।
तम के गहराईयों में भी जाकर, 
किरणें फैलाएगी कविता मेरी।  
मैं रहूँ ना रहूँ पर होगी कोई 'देव' 
जो गुनगुनायेगी कविता मेरी। 





मुझको कविता से प्यार हुआ।

भाव भरे मन ये व्याकुल, कविता जनने को हर बार हुआ। 
मैं रीझ गया हूँ भावों परमुझको कविता से प्यार हुआ।
शब्दों के फूल किया अर्पणसपना मेरा साकार हुआ,
कविता की खातिर फिर तो ये, जीवन अपना न्यौछार हुआ। 
मुझको कविता से प्यार हुआ। 

देते शब्दों के फूल पिरो कर, कविता का बेजार हुआ। 
उसकी महक शराब बन गयी, और नशा दिल के पार हुआ।  
शब्दों के वो फूल पिरोये, पहन रखा हूँ माला सी मैं, 
वो है चमन गुलों की मेरी, मैं फूलों का बाजार हुआ।  
मुझको कविता से प्यार हुआ। 

उस बिन रहना पल भर मुश्किल, अगर नहीं दीदार हुआ।
सोच डुबाये रहती गहरे, सिर पर चिंता का भार हुआ।
दिल मेरा उसमें है बसता, वो बसती है दिल में मेरे, 
साथ निभाता हरदम मेरा, जो पक्का वो तो यार हुआ।
मुझको कविता से प्यार हुआ।