बिछुड़ सजन से अपन, घबराने लगी
उर्मिला मन ही मन, अकुलाने लगी।
वन गमन को लखन, जब घर से चले
संग जाने को उनके, मनाने लगी।
साथ जाना सजन के, मना हो गया
सफल तप हो, स्वयं को तपाने लगी।
बीत चौदह बरस, जाँयगे किस तरह
सोचती रात ऑंखें, जगाने लगी।
देखती आसमां, अंगना में खड़ी
चांदनी में अकेले, नहाने लगी।
आस मन में लिये, फिर उगेगा रवी
घोर तम में लिये, दिल जलाने लगी।
दिन बिताती बिरह में, तपस्विनी बनी
लखन सकुशल रहें, नित मनाने लगी।
उर्मिला का मिलन, गजल
कष्ट चौदह बरस की भुलाने लगी।
नैन राहों, पिया के बिछाने लगी।
उरमिला, उर्मिला का, सदा यूं रहा
देख आँखे, लखन को जुड़ाने लगीं।
खो दिया जिंदगी की सुनहरी घडी
फल मधुर हर एक पल का पाने लगी।
बीत कैसे गया रह अकेले समय
याद करके व्यथा सब बताने लगी।
सींच डाली चमन, प्यार में शुष्क मन
कुम्हलाये गुलों को खिलाने लगी।
बुझ चुके सब दिवे हृद के जल गये
रोशनी से दिवाली मनाने लगी।
की कड़ी तपस्या जनकदुलारी।
काँटों से भरी थी जिंदगी सारी।
पली वो ज्यों फूलों की कली,
मगर कष्ट, वन के सह ली,
सिय को विरहन करके ले गया,
अशोक वाटिका में था वास ,
साजन बसे समुन्दर पार,
अकेली बैठी विरह की मारी।
जोह में बीते बरस अनेक,
पहुंचे राम लखन समेत,
सीता को लाये रावण संहार,
पायी सीता अपना परिवार,
पल पल झेली विपदा भारी।
मंथरा ने लगाई आग,
जलाई दशरथ का घर।
कैकेयी की मति फेर,
जलाई दशरथ का घर।
याद दिलाई उसको वह,
कहे थे देने को दशरथ,
मांग ली सुत को राज,
राम को मांगी वनवास,
कैकेयी, उनसे दो वर।
जलाई दशरथ का घर।
आगे पीछे सोच न पायी,
बनी स्वार्थ में पापिन,
डंस ली मांग के वर वो,
पति के प्राण की सापिन,
कैकेयी बातों में आकर।
जलाई दशरथ का घर।
मंथरा की वो सिखाई,
कैकेयी बातों में आयी,
छेद कर दी उसी थाल में,
जिसमे दासी ने खाई,
कैकेयी के कानों को भर।
मंदोदरी
रावण की भार्या मंदोदरी,
सीता की रक्षा मन में विचारी।
शूर वीर पुत्रों की मान थी वो।
ऐश्वर्य, वैभव कदमों तले
लंका की महारानी बानी वो ।
हेमा - मयदानव की पुत्री,
काल वश वो कुछ न समझा ।
बेबस पड़ी लंका की गली
सबरी के घर राम पधारे,
हुई दीवानी ख़ुशी के मारे,
क्या क्या है घर में रखा, ढूंढे एक एक बर्तन।
करने को वो आवभगत, करती नाना जतन।
कूंचा ले घर अंगना बुहारे।
सबरी के घर ...
क्या खिलाऊँ, अपने राम को कैसे रिझाऊं।
भाता क्या है मेरे राम को, समझ न पाऊं।
बैठ राम का रूप निहारे।
सबरी के घर ...
चुन चुन कर ले आयी, वह बगिया से बेर।
चख चख कर परोस दी, करी नहीं अबेर।
प्रेम भक्ति से राम हर्षाये।
सबरी के घर ...
अनसुईया की सुनो कथा।
दक्ष प्रजापति की थी कन्या
अनसुईया की सुनो कथा।
अनसुईया के प्रताप को
और उसके सतीत्व का तेज,
आकाश मार्ग से जाते भी
अनुभव करते थे सब देव।
हुआ सीता राम का आगत,
अनसुईया ने किया स्वागत।
अत्रि आश्रम में साध्वी थी वो
सीता को दिया धर्म उपदेश।
गए विष्णु, महेश व ब्रह्मा
अनसुइया की लेने परीक्षा।
निर्वस्त्र होकर देने पर ही
ग्रहण करेंगे हम भिक्षा।
पूरी सृष्टि के जो हैं पालक
अनसुईया ने बनाया बालक
अपनी गोद में लिया उठा।
सूर्पणखा
खुद की करनी, बनी नकटी।
कभी राम, कभी लखन
बारी बारी से तंग करती
रिझाने चली प्रभु राम को
बन के सुंदरी वह कपटी।
विवाह से मना किया तो
लक्ष्मण ओर वह लपकी
बोले लखन जाओ उधर
आना नहीं इधर अबकी।
धर रूप राक्षसी सूर्पणखा
झट सीता पर तब झपटी
लखन ने काट दिया नाक
रोती गयी बन के नकटी।
एस० डी० तिवारी
उर्मिला मन ही मन, अकुलाने लगी।
वन गमन को लखन, जब घर से चले
संग जाने को उनके, मनाने लगी।
साथ जाना सजन के, मना हो गया
सफल तप हो, स्वयं को तपाने लगी।
बीत चौदह बरस, जाँयगे किस तरह
सोचती रात ऑंखें, जगाने लगी।
देखती आसमां, अंगना में खड़ी
चांदनी में अकेले, नहाने लगी।
आस मन में लिये, फिर उगेगा रवी
घोर तम में लिये, दिल जलाने लगी।
दिन बिताती बिरह में, तपस्विनी बनी
लखन सकुशल रहें, नित मनाने लगी।
उर्मिला का मिलन, गजल
कष्ट चौदह बरस की भुलाने लगी।
उर्मिला उरमिला खिलखिलाने लगी ।
हो चली ख़त्म, चौदह वरष की विरह
उरमिला, उर्मिला का, सदा यूं रहा
देख आँखे, लखन को जुड़ाने लगीं।
खो दिया जिंदगी की सुनहरी घडी
फल मधुर हर एक पल का पाने लगी।
बीत कैसे गया रह अकेले समय
याद करके व्यथा सब बताने लगी।
सींच डाली चमन, प्यार में शुष्क मन
कुम्हलाये गुलों को खिलाने लगी।
बुझ चुके सब दिवे हृद के जल गये
रोशनी से दिवाली मनाने लगी।
एस० डी० तिवारी
जब वन को चले रघुराई,
कौशिल्या आँखों में रातें बितायी। जब वन को ...
रोने लगे अयोध्या के वासी
सरयू नीर बहाई। जब वन को ...
अँखियन अश्रु लिये थे पंछी
कानन पड़े मुरझाई। जब वन को ...
व्यथित हो गिरे धरती पर
दशरथ को मूर्छा छाई। जब वन को ...
रोने लगा पाप कैकेयी का
मन ममता उपजाई। जब वन को ...
मन ही मन पछताई कैकेयी
हाय! काहे वन को पठाई। जब वन को ...
धरा, गगन, राहें सब रोतीं
शोक की बदरी छाई। जब वन को ...
कौशिल्या आँखों में रातें बितायी। जब वन को ...
रोने लगे अयोध्या के वासी
सरयू नीर बहाई। जब वन को ...
अँखियन अश्रु लिये थे पंछी
कानन पड़े मुरझाई। जब वन को ...
व्यथित हो गिरे धरती पर
दशरथ को मूर्छा छाई। जब वन को ...
रोने लगा पाप कैकेयी का
मन ममता उपजाई। जब वन को ...
मन ही मन पछताई कैकेयी
हाय! काहे वन को पठाई। जब वन को ...
धरा, गगन, राहें सब रोतीं
शोक की बदरी छाई। जब वन को ...
दशरथ जी के अंगना
कौशिल्या मगन हुई
सभी सुखों के धाम
उसके गोदी में खेलें राम
राम लिए अवतारी
बनी वो भाग्यवान महतारी
माँओं में रतन हुई। कौशिल्या ..
सुबह से लेकर शाम
वो रटती रहती राम राम
राम की भजन हुई। कौशिल्या ..
करे जग जिसे प्रणाम
छूकर चरण वही श्रीराम
मातु की नमन हुई। कौशिल्या ...
कैकेयी
कैकय देश से आयी नारि।
दशरथ के घर ठानी रार।
रानी तीनों में सबसे प्रिय।
दशरथ के बसती थी हिय।
सुंदरता की वह अभिमानी,
चाही थी मन की मनवानी।
मन मंथरा की सीख को धारि। कैकय ...
काल का चला ऐसा कुचक्र।
दशरथ से मांग ली दो वर।
सुत को अपने मांगी राज,
राम को चौदह वर्ष वनवास।
रूठी कोपभवन में विचारि। कैकय ...
अहिल्या शिला से हो गयी नारी
बड़ी है प्रभु की लीला न्यारी
ऋषि गौतम के शाप से बनकर
पड़ी रही वो वर्षों तक पत्थर
आकर राम ने उसको तारी
अहिल्या ...
पा रही थी, किये की सजा वह
शिला रूप में, धूप बारिश सह
बन गए राम उसके उपकारी
अहिल्या ...
जैसे ही छुई वह, चरण राम की
चमक गयी राह, परम धाम की
राम भजी और, परलोक सुधारी
अहिल्या ...
कौशिल्या मगन हुई
सभी सुखों के धाम
उसके गोदी में खेलें राम
पुलकित बदन हुई। कौशिल्या ..
बनी वो भाग्यवान महतारी
माँओं में रतन हुई। कौशिल्या ..
सुबह से लेकर शाम
वो रटती रहती राम राम
राम की भजन हुई। कौशिल्या ..
करे जग जिसे प्रणाम
छूकर चरण वही श्रीराम
मातु की नमन हुई। कौशिल्या ...
कैकेयी
कैकय देश से आयी नारि।
दशरथ के घर ठानी रार।
रानी तीनों में सबसे प्रिय।
दशरथ के बसती थी हिय।
सुंदरता की वह अभिमानी,
चाही थी मन की मनवानी।
मन मंथरा की सीख को धारि। कैकय ...
काल का चला ऐसा कुचक्र।
दशरथ से मांग ली दो वर।
सुत को अपने मांगी राज,
राम को चौदह वर्ष वनवास।
रूठी कोपभवन में विचारि। कैकय ...
करनी पड़ गयी, उसकी भारी।
स्वार्थ में गयी, स्वयं ही मारी।
दशरथ के पुत्र हुए अनाथ।
अपने धोई वह पति से हाथ।
मूर्ख की सीख दी गर्त में डारि। कैकय ... अहिल्या शिला से हो गयी नारी
बड़ी है प्रभु की लीला न्यारी
पड़ी रही वो वर्षों तक पत्थर
आकर राम ने उसको तारी
अहिल्या ...
पा रही थी, किये की सजा वह
शिला रूप में, धूप बारिश सह
बन गए राम उसके उपकारी
अहिल्या ...
जैसे ही छुई वह, चरण राम की
चमक गयी राह, परम धाम की
राम भजी और, परलोक सुधारी
अहिल्या ...
उर्मिला कौशिल्या अहिल्या सबरी सीता कैकेयी मंथरा मंदोदरी तारा अनसुइया
तारा
तारा ने पुकारा राम को, किष्किंधा में।
मारा क्यों मेरे नाथ को , किष्किंधा में।
भांप ली थी तारा, उसके काल को,
समझाई, न माना, पति बालि को,
पाया मोक्ष हाथ राम के, किष्किंधा में।
रो के पागल, सती होने की ठानी,
सब समझाए, बन जाओ महरानी,
पति मानी बालि के भ्रात को, किष्किंधा में।
देखी हुए लक्ष्मण को, क्रोधित जब,
कर दी उन्हें वो शांत, समझाकर,
सुग्रीव सेना खड़ी प्रस्थान को, किष्किंधा में।
वृहस्पति पुत्री, बड़ी ज्ञानी थी तारा,
अमर इस कारन, जग जाने सारा,
तारा
तारा ने पुकारा राम को, किष्किंधा में।
मारा क्यों मेरे नाथ को , किष्किंधा में।
भांप ली थी तारा, उसके काल को,
समझाई, न माना, पति बालि को,
पाया मोक्ष हाथ राम के, किष्किंधा में।
रो के पागल, सती होने की ठानी,
सब समझाए, बन जाओ महरानी,
पति मानी बालि के भ्रात को, किष्किंधा में।
देखी हुए लक्ष्मण को, क्रोधित जब,
कर दी उन्हें वो शांत, समझाकर,
सुग्रीव सेना खड़ी प्रस्थान को, किष्किंधा में।
वृहस्पति पुत्री, बड़ी ज्ञानी थी तारा,
अमर इस कारन, जग जाने सारा,
युवराज बनाई अंगद को, किष्किंधा में।
तारा ने पुकारा राम को, किष्किंधा में
की कड़ी तपस्या जनकदुलारी।
काँटों से भरी थी जिंदगी सारी।
पली वो ज्यों फूलों की कली,
मगर कष्ट, वन के सह ली,
घर से दूर रह कर सीता,
भूख प्यास सह कर सीता,
दैत्य रावण हर कर ले गया,
सदैव पतिव्रता धर्म को धारी।
की कड़ी तपस्या जनकदुलारी।
सिय को विरहन करके ले गया,
अशोक वाटिका में था वास ,
साजन बसे समुन्दर पार,
अकेली बैठी विरह की मारी।
की कड़ी तपस्या जनकदुलारी।
पहुंचे राम लखन समेत,
सीता को लाये रावण संहार,
पायी सीता अपना परिवार,
पल पल झेली विपदा भारी।
की कड़ी तपस्या जनकदुलारी।
जिसके करते राम थे रक्षा,
देनी पड़ गयी अग्नि परीक्षा,
की कड़ी तपस्या जनकदुलारी।
जिसके करते राम थे रक्षा,
देनी पड़ गयी अग्नि परीक्षा,
फिर से गईं वन में सीता,
हर संकट को उन्होंने जीता,
लव कुश की बनी महतारी। की कड़ी तपस्या जनकदुलारी।
मंथरा ने लगाई आग,
जलाई दशरथ का घर।
कैकेयी की मति फेर,
जलाई दशरथ का घर।
याद दिलाई उसको वह,
कहे थे देने को दशरथ,
मांग ली सुत को राज,
राम को मांगी वनवास,
कैकेयी, उनसे दो वर।
जलाई दशरथ का घर।
बनी स्वार्थ में पापिन,
डंस ली मांग के वर वो,
पति के प्राण की सापिन,
कैकेयी बातों में आकर।
जलाई दशरथ का घर।
कैकेयी बातों में आयी,
छेद कर दी उसी थाल में,
जिसमे दासी ने खाई,
कैकेयी के कानों को भर।
जलाई दशरथ का घर।
मंदोदरी
रावण की भार्या मंदोदरी,
लंका में भी धर्म पर चली।
मुझ जैसी वो भी एक नारी।
हर कर लाये, वो पड़ी लाचारी।
मेघनाद, अक्षय, अतिकाय
लौटाकर टालो, संकट भारी।
रावण पर उसकी, पर न चली।
रावण की भार्या मंदोदरी।
शूर वीर पुत्रों की मान थी वो।
ऐश्वर्य, वैभव कदमों तले
लंका की महारानी बानी वो ।
हेमा - मयदानव की पुत्री,
रावण की भार्या मंदोदरी।
काल के मुंह में खड़ी प्रजा।
सीता को लौटा, कर लो रक्षा।
रावण को बारम्बार समझाई काल वश वो कुछ न समझा ।
बेबस पड़ी लंका की गली
रावण की भार्या मंदोदरी।
सबरी के घर राम पधारे,
हुई दीवानी ख़ुशी के मारे,
क्या क्या है घर में रखा, ढूंढे एक एक बर्तन।
करने को वो आवभगत, करती नाना जतन।
कूंचा ले घर अंगना बुहारे।
सबरी के घर ...
क्या खिलाऊँ, अपने राम को कैसे रिझाऊं।
भाता क्या है मेरे राम को, समझ न पाऊं।
बैठ राम का रूप निहारे।
सबरी के घर ...
चुन चुन कर ले आयी, वह बगिया से बेर।
चख चख कर परोस दी, करी नहीं अबेर।
प्रेम भक्ति से राम हर्षाये।
सबरी के घर ...
अनसुईया की सुनो कथा।
दक्ष प्रजापति की थी कन्या
अनसुईया की सुनो कथा।
अनसुईया के प्रताप को
और उसके सतीत्व का तेज,
आकाश मार्ग से जाते भी
अनुभव करते थे सब देव।
अत्रि मुनि के आश्रम में
अपनी तपस्या में वो रमे,
धर्म मार्ग पर चली सदा। अनसुईया की .. हुआ सीता राम का आगत,
अनसुईया ने किया स्वागत।
अत्रि आश्रम में साध्वी थी वो
सीता को दिया धर्म उपदेश।
धैर्य, धर्म, मित्र, स्त्री चार
संकट कल में परखे जात
समझना सबसे धर्म बड़ा। अनसुईया की ... गए विष्णु, महेश व ब्रह्मा
अनसुइया की लेने परीक्षा।
निर्वस्त्र होकर देने पर ही
ग्रहण करेंगे हम भिक्षा।
पूरी सृष्टि के जो हैं पालक
अनसुईया ने बनाया बालक
अपनी गोद में लिया उठा।
अनसुईया की सुनो कथा।
सूर्पणखा
खुद की करनी, बनी नकटी।
कभी राम, कभी लखन
बारी बारी से तंग करती
रिझाने चली प्रभु राम को
बन के सुंदरी वह कपटी।
खुद की करनी, बनी नकटी।
लक्ष्मण ओर वह लपकी
बोले लखन जाओ उधर
आना नहीं इधर अबकी।
खुद की करनी, बनी नकटी।
झट सीता पर तब झपटी
लखन ने काट दिया नाक
रोती गयी बन के नकटी।
खुद की करनी, बनी नकटी
एस० डी० तिवारी
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