Sunday, 15 May 2016

Baki jahan se kya, Ghazal


बाकी जहाँ से क्या !


तुम मुझको गए हो मिल, मुझे बाकी जहाँ से क्या !
दिल मेरा गया है खिल, मुझे बाकी जहाँ से क्या !

जिंदगी तुम्हारे नाम ये, सांसें तुम्हीं से हैं,
तुम्हारी पनाह दिल, मुझे बाकी जहाँ से क्या !

तुमसे जहाँ का हुस्न, मालिक तुम्हीं तो हो,
जलवा तुम्हारी महफिल, मुझे बाकी जहाँ से क्या !

इश्क की पंखुड़ियों में, रह जाऊंगा हो के बंद,    
हो जाओगे भी कातिल, मुझे बाकी जहाँ से क्या !

मुहब्बत के हो फ़रिश्ते, तुम मेरा मुकाम हो,
राहों को रखना झिलमिल, मुझे बाकी जहाँ से क्या !

प्यार में तुम्हारे दम है, जन्नत उतार लाये,
जन्नत सी तुम हो मंजिल, मुझे बाकी जहाँ से क्या !

साया तुम्हारा हमदम, रह जाये बना हरदम,
चल लेंगे हम हिलमिल, मुझे बाकी जहाँ से क्या !





तुम जो मिल गए हो, मुझे बाकी जहाँ से क्या !
दिल मेरा खिल गया, मुझे बाकी जहाँ से क्या !
जिंदगी तुम्हारे नाम, सांसें तुम्हीं से हैं ,
तुम्हारी पनाह दिल, मुझे बाकी जहाँ से क्या !
मुहबबत के हो फ़रिश्ते, तुम मेरा मुकाम हो ,
कर दो राह रौशन, मुझे बाकी जहाँ से क्या !
प्यार में तुम्हारे दम, जन्नत उतार लाये,
जन्नत है मेरे पास, मुझे बाकी जहाँ से क्या !
तुमसे ही जहाँ का हुस्न, मालिक तुम्ही तो हो
जलवे में कर लो कैद, मुझे बाकी जहाँ से क्या !
साया तुम्हारा हम पर, रह जाये बना हरदम
तुम हो मेरे हमदम मुझे बाकी जहाँ से क्या !

एस० डी० तिवारी

Tuesday, 10 May 2016

Khuda ke shahar me / ghazal



खुदा के शहर में देखा, दीया है न बाती है।
वहां की न जानूं कैसे, रैना जगमगाती है।

सड़कें ना सेतु वहां पे, लगे न पहिये इंजिन
जानूं ना उड़ती कैसेगाड़ी चली जाती है।

कहीं नहीं पंखा कूलर, वातानुकूल कहीं ना,
सुगन्धित पवनिया शीतल, जीया को जुड़ाती है।

कहीं पर अस्नान घर ना, और न ही घाट देखा,
बरसती झड़ी में जनता, उमंग भर नहाती है। 

न तन पर पोशाक महंगे, पहने न गहने कोई,
मगर जन जन की वहां के, सुंदरता लुभाती है।

चारु फल पेड़ों पे लटके
, कोठिले भरे 
अन्न से,
फरिश्तों की भीड़ बैठी, खाकर के अघाती है

शयन जागरण की चिंता, करता न 
कोई 'देवा',
सभी पर कृपा ही उसकीसुख चैन बरसाती है।


- एस. डी. तिवारी 



खुदा अक्ल दे दे

तेरे अपने इंसानों को, काफिर कहते
खुदा! बेअक्लों को, कुछ अक्ल दे दे ।
तेरी बनाई चीजों को मिटाते बेदर्दी से
उन नासमझों को. कुछ अक्ल दे दे।
कहते जो खुद को, ठेकेदार-ए-खुदाई
उन खुदगर्जों को, कुछ अक्ल दे दे।
सीखे न करना, जो मुहब्बत जीवों से
हमदर्द न बन्दों के, कुछ अक्ल दे दे।
तेरी बख्शी हुई जान का क़त्ल करते
उन बेरहमों को, कुछ अक्ल दे दे।
इंसान के लिवास में छिपे दरिंदे जो  
पहचान के वास्ते, वही शक्ल दे दे।