Sunday, 27 January 2019

Ravan


रावण एक ऐसा जातक था हँसते हुआ जन्मा 
मगर किसी खिलोने के लिए रावण रोया होगा। 
बड़ा होकर वह बना दिया पूरी लंका सोने की
लिपटी मिटटी धोने के लिए रावण रोया होगा। 
गली के बच्चों को मारकर रुलाता होगा
खेल में संग होने के लिए रावण रोया होगा
स्त्रियों को कभी सम्मान नहीं दे सका रावण 
माँ की गोद में सोने के लिए रावण रोया होगा। 
वैभव से संपन्न लंकेश बन गया वो बेशक
रिश्तों को खोने के लिए रावण रोया होगा।
किसी से कुछ भी छीन लेने की आदत उसकी  
कोई हठ पूरा होने के लिए रावण रोया होगा।  
महावीर, साहसी, निर्दयी और निडर था वो 
पुत्रों के शव ढोने के लिए रावण रोया होगा।  
महाप्रतापी महापराक्रमी महान धनवान था वो 
पूरे कुल को डुबोने के लिए रावण रोया होगा।   
राम को सामने 
टोना ढोने सजोने चुभोने पिरोने बिलोने 

sabase anokha

जब बहन  की नाक कटती रावण भी रोता है।
जब भाई की बांह छंटती, रावण भी रोता है।
सेना  के मरने पर क्षोभ नहीं करता बेशक,
संतान की जान निकलती, रावण भी रोता है।

हरण और बलात कर ले, चाहे वो कितने भी,
जब शाप देती कोई सती, रावण भी रोता है।
अमरत्व का वरदान लिए, गर्व में चाहे डूबा हो,
नाभि की अमृत मिटती, रावण भी रोता है।
वासना का वशीभूत, बटोर ले जग के वैभव 
जब खुद की आत्मा मरती, रावण भी रोता है।  
रत्न जड़े मुकुट उसके, सोने का सिंहासन चाहे,
तले से जब जमीन सरकती, रावण भी रोता है। 
दस शीश कटने  पर कर ले कितना अट्ठहास 
जब भी राजधानी लुटती, रावण भी रोता है।
रखे देवताओं को पराजित करने की शक्ति,
राम पर निष्प्रभाव रहती, रावण भी रोता है।
अम्बर में चलने वाला, अंगद का पांव उठाने
नीचे जब निगाहें झुकती, रावण भी रोता है।
बड़े बड़े बलवानों को धूल चटाता हो पल में,
वानरों की मार पड़ती, रावण भी रोता है।
पृथ्वी पूरी हिला देने का, भरने वाला दम,
डोलती लंका की धरती, रावण भी रोता है।
वेद, विज्ञान का ज्ञानी, व पुराणों का पंडित,
विनाश काल मति फिरती, रावण भी रोता है।
सूर्पनखा की नाक कटती 
कालनेमि छल असफल होता है 
जटायु आसमान में लड़ता 
तब रावण भी रोता है। 
अहिरावण महिरावण 
विभीषण शत्रु को भेद बताता 
महायुद्ध में घिरा हो भ्राता 
और कुम्भकर्ण सोता है 
 संकट में अकेले पड़ जाता  
तब रावण भी होता है 
मंदोदरी 

तख़्त ताज सिंहासन

फूल कहाँ से पायेगा वह 
बीज कांटे का जो बोता है 
बलिष्ठ रावण भी रोता है। 


पृ १४२ 

यहाँ वहां से धन लूटकर,
वैभव चरम पर पहुँचाया। 
रत्नों और मणियों से जड़ा 
नगरी सोने की बनवाया।  
भोग विलास में रहता लिप्त 
तृप्त कभी ना होता है।  
जब घर उसका लुट जाता है, 
तब रावण भी रोता है।  

पुलस्त्य पौत्र, विश्रवा का पुत्र,  
प्रकांड पंडित प्रज्ञ था वह।  
महाप्रतापी, शिव का भक्त 
राजनीति का मर्मज्ञ था वह।  
ज्ञानी होकर भी वह जग में  
बोझ पाप का ढोता है। 
मति उसकी फिर जाती है 
तो रावण भी रोता है। 

कपीश हनुमान को पकड़ कर,  
पूंछ दाह की युक्ति बनायी।
हेतु किसी खोदा खाईं वह, 
अपने पर विपदा बन आयी। 
हनुमान की दुम जलाने में, 
कष्ट उसे ना होता है।    
सोने की लंका जलती है, 
तब रावण भी रोता है।

अगले जन्म हिरण्याक्ष ने,  
लिया था रावण का अवतार।  
पिता विश्रवा, कैकसी माता, 
श्रीमद्भागवत पुराणानुसार। 

भानुप्रताप चक्रवर्ति राजा 
ब्राह्मण के श्राप का शिकार।  
अगले जनम में लेगा वही, 
रावण के रूप में अवतार। 
बाल्यकाल में हो गया वह 
चारों ही वेदों का ज्ञाता। 
ज्योतिष का इतना ज्ञान हुआ,
रावण-संहिता लिख डाला। 
करने को वह घोर तपस्या 
युवावस्था में निकला घर से। 
होना चाहा वह अजर अमर, 
भगवन ब्रह्माजी के वर से। 
ब्रह्माजी  ने उससे कहा  
नहीं दे सकता यह वरदान।
मांग लो तुम अन्य शक्तियां 
पूरा हो तुम्हारा अरमान। 
किसी के भी नहीं कहने पर, 
निराश अतिशः होता है। 
मन की पूरी ना हो पाती  
तो रावण भी रोता है। 
 
शक्ती पाकर आया रावण 
मातु पिता से कहा वृतांत।  
वे दोनों प्रसन्न बहुत हुए,
रावण को हो गया अभिमान।  
सहस्रबाहु की सीमा में  
एक दिन पहुंचा  मित्रों के साथ। 
सरि नर्मदा में जल थोड़ा था 
बड़ी चौड़ी होने के बाद। 
देखा तो इक बांध बना था 
सरि जल को जिसने रोका था। 
ध्वस्त किया रावण ने तत्पल  
बांध छोड़ बाणों का झोंका था । 
सहस्रबाहु से रण छिड़ गया,   
रावण की हो गयी पराजय। 
कैदी बना लिया रावण को 
भेज दिया बंदी के आलय।
पुलस्त्य के कहने पर छोड़ा 
अल्हड़ युव ये छोटा है।  
अपराध हेतु बंदी बनता, 
तब रावण भी रोता है। 


रावण को अतिशः ग्लानि हुई
वह पुनः किया ब्रह्मा का तप। 
ब्रह्मा ने फिर प्रसन्न होकर 
दिया कुछ और मायावी वर। 
मायावी शक्ति पा गया तब   
वह गया वानरों के प्रदेश। 
वानर-राज बालि को छेड़ा 
भरा उसके मन में आवेश। 
रावण उसे देख कर हंसा 
मर्कट कहकर किया उपहास। 
शक्तियां अपनी दिखाने को 
युद्ध को उकसाया ललकार। 
ध्यान मग्न बालि दिया न ध्यान, 
रावण जोर से मारा लात। 
कायर बोल उसे भड़काया 
बुलाया युद्ध हेतु बिन बात। 
बालि ने पटक पटक कर मारा 
लपेट उसे पूंछ में बांधा।  
ध्यान के समाप्त होने पर 
छः मास तक कैद में डाला। 
एक दिन जा रहा था बाली  
कँखवारी में उसे दबाया। 
पकड़ में कांख की ढील हुई 
भाग रावण ने प्राण बचाया। 
अनायास रगड़ा करने पर   
बलिष्ठ भी पिट जाता है। 
अभिमान कोई चूर कर दे   
तब रावण भी रोता  है। 


चाहता था बनना दशानन  
सम्पूर्ण जगत की परम शक्ति। 
भांति भांति करता ब्रह्मा की 
जप तप व्रत और उत्तम भक्ति। 
रह गयी अभी वहीं की वहीं  
रावण की सोची प्रमुख समस्या। 
निकल पड़ा फिर से करने को 
रावण ब्रह्मा की घोर तपस्या। 
इस बार कर लिया वह दानव 
ब्रम्हा से ब्रह्मास्त्र प्राप्त। 
सोचा उसका प्रयोग करके 
देवताओं को दे दे मात। 
देवताओं  से किसी बात पर 
होकर के राक्षस अति क्रुद्ध। 
आक्रमण कर दिया स्वर्ग पर 
देवताओं से करने युद्ध। 
यम कुबेर इन्द्र वरुण को वो   
इकला ही कर दिया परास्त। 
उनको बना लिया बंधक तब 
चले देवता शेष सब भाग। 
स्वर्ग लोक में हुआ उस काल  
राक्षस रावण का अधिकार। 
देवता गण सब शांत हो गए  
चहुँ ओर मच गया हाहाकार।
आगे के पथ में अंधकार हो  
परिणाम दुष्कर होता है। 
क्षण भर का सुख जब छिन जाये   
तब रावण भी रोता है। 

स्वर्ग लोक लौटाया दिया 
रावण को जब हो गया ज्ञान।  
हुए देवता गण सब दब्बू    
देखे, हुआ अपना अपमान। 
करने लगे निशाचर सब मिल 
बली रावण की जय जयकार।  
दैत्यों ने किया अनुग्रह फिर 
बन जाये रावण दैत्य-राज।  

प्रसन्न होकर मय दानव ने 
मन्दोदरी से किया विवाह।
बली ज्ञानी पति को पाकर 
जीवन की होगी सरल राह।   
सागर बीच त्रिकुट पर्वत पर  
बना दुर्ग मय ने सजा दिया।  
इंद्रपुरी से सुन्दर नगरी  
लंकापति रावण बना दिया। 
पहले रावण गया स्वर्ग को 
सोचा बने वहीं राजधानी। 
स्वर्ग लोक न भाया उसको 
उससे भी सुन्दर की ठानी। 
इसी लिए कुबेर से लंका  
खाली वह करवा लिया।  
मणि, कंचन, नाना रत्नों से 
मय की मदद से सजवा लिया। 
कुबेर गया हिमालय पर्वत  
अलकापुरी निवास बनाया।  
बहुत सा अपना धन सम्पति 
पुष्पक विमान साथ ले आया। 
अन्य किसी की विभूति वैभव   
उसे सहन कहाँ होता है! 
उससे अधिक किसी के पास  
 तब रावण भी रोता है। 

लंका में जिस मद का अभाव   
रावण जा कुबेर से लाया।  
एक दिन वह जाकर हिमालय   
पुष्पक विमान भी हथियाया।  

वैभव अरु शक्ति बढ़ाने को 
रावण ने की पुनः तपस्या। 
कुम्भकर्ण और विभीषण भी 
साथ जुटे करने तपचर्या। 
प्रकट हुए ब्रह्मा तो  रावण 
अमरता का माँगा वरदान। 
ब्रह्मा जी ने ठुकराया यह 
पास न इसका कोई निदान। 
ब्रह्मा जी के गमन पश्चात् 
रावण ने की पुनः तपस्या। 
ब्रह्मा आये फिर एक बार  
दूर करने उसकी समस्या।
रावण तुम हो ज्ञानी खुद ही 
उचित मांगो मुझसे वरदान।  
डाल रहे तुम बार बार हो  
मेरे कामों में व्यवधान।
मांग लो जो धरे हो मन में    
छोड़ अमरत्व को इसी क्षण। 
कर सकता ना मर्यादा का
किसी तौर मैं  कभी उलंघन। 
संभव नहीं यह मैं बदल दूँ 
नियम बनाये जो विधाता। 
शक्ति नहीं मुझमे मैं तोड़ूं 
सृष्टि के नियमों की मर्यादा। 

भर देता हूँ नाभि तुम्हारी  
अमृत का एक अद्भुत कोष 
नहीं होगी मृत्यु तुम्हारी 
जब तक रखोगे उसको पोष। 

यद्यपि तुम संतुष्ट नहीं तो 
महादेव की शरण में जाओ। 
वही हैं बस सृष्टि में सक्षम 
जिनसे मन-वांछित पाओ।   
मन की मांगी मिले नहीं जब 
रावण क्षुब्ध बहुत होता है 
यदि इच्छा से संतुष्ट नहीं   
तब रावण भी रोता है। 

कुछ सोच समझ बोला रावण 
नहीं दे सकते यह वरदान।  
अमृत संग कुछ और भी दें  
मैं लेता हूँ इसे ही मान। 
ब्रह्मा ने अपनी वही बात 
एक बार पुनः दोहराया। 
मांगो अमरत्व के अतिरिक्त 
जो कुछ तुम्हरे मन में आया। 
साथ ही दो यह वर पितामह
तब होगा मुझको स्वीकार।  
देव, दनुज, नाग, यक्ष, किन्नर, 
गंधर्व युद्द में सके न मार। 
तथास्तु कह दिया ब्रह्मा ने 
दृष्टि पड़ी एक अप्सरा पर। 
चुपके से खड़ी सुन रही थी 
दे रहे क्या रावण को वर। 

ब्रह्मा जी भली जान गए 
वो कौन है व भेजा किसने। 
अप्सरा अतिशः घबरा गयी  
व लगी उनको प्रणाम करने। 

अप्सरा भागना चाही पर 
रावण ने उसको पकड़ लिया
लंका के द्वार रक्षा हेतु  
उस लंकिनी को  रख लिया।  

रावण ने पूछा नाभि में 
कब तक रहेगा अमृत कुंड 
अग्नि बाण के अतिरिक्त  जब तक 

वर लिया वह मरे न किसी से  
अतिरिक्त नर और वानर के। 

पुलस्त्य के तीनों पुत्र 
ब्राह्मणों के शाप के कारन 
पाप रूप हुए 


उन्होंने सिर्फ उस अप्सरा को इतना ही कहा ‘’जब तुमने छुप के सुन ही लिया है तो इतना और भी सुन लो कि, जिस दिन किसी वानर का जोरदार मुक्का तुम्हारे इसी कान पर पडेगा, उस दिन समझ लेना रावण और राक्षसों का अंत आ गया”  ब्रह्मा जी चले गये और अप्सरा चुपके से भागने वाली थी कि रावण ने उसे पकड लिया और बोला कौन हो यहाँ क्याकर रही हो? उसने बताया कि युँ ही ब्रह्मदेव क्या कह रहे है वो देखने आई थी. रावण समझ गया कि देवताओं की चाल है इसलिये उसने उस अप्सरा को कहा तुम्हें बहुत ज्यादा कान लगा के सुनने की आदत है इसलिये अब मेरे साथ चल अब लंका के द्वार पर, वहाँ कोई घुसे तब कान लगा के सुनना और रखवाली करना और उसे लंकिनी नाम से मुख्य द्वार पर रखवाली के लिये रख दिया.

रावण अब तपस्या जनित अपनी शक्ति की लगभग चरम सीमा पर पहुँच गया था इसलिये अभिमान भी स्वाभाविक था। सभी राक्षस उसकी छत्र छाया में सुरक्षित थे उनमें से कई राक्षस वो पहले देवताओं के भय से तपस्या नहीं कर पा रहे थे, वो तपस्या करने लगे शक्ति प्राप्त करने के लिये और अन्य सभी राक्षस लंका में आनंद और एश्वर्य का भोग करने लगे.

एक दिन रावण अपने अभिमान और ऐश्वर्य के बल पर अकेले ही त्रिलोक में विजय के लिये निकला और सुतल लोक में गया. वहाँ सुतल लोक में राजा बलि राजमहल में थे और रावण बडे अभिमान और गरजना के साथ उनके द्वार पर गया और द्वार पाल को बोला “ बलि को बोलो रावण युद्ध के लिये आया है” द्वारपाल के भेष में कोई और नहीं वल्कि स्वयं नारायण थे उन्होंने बलि को वरदान दिया था, कि उसके द्वार पर पहरा वो देंगे.

रावण ने जब द्वार पाल को जबरन धमकाकर बोला, तो द्वारपाल ने कहा “हे लंकापति रावण, महाराज बलि इस वक्त पूजा में है और पूजा की समाप्ति के बाद वो तुमसे अवश्य लडगें, चिंता मत करो धैर्य रखो, वो भगवान भक्त हैं इसलिये पहले वो उस काम को ही पूरा करंगे उसके बाद वो अपना ये सामने रखा कवच पहनने को यहाँ आएंगे तब तुम्हारा संदेश उन्हें हम यहीं तुम्हारे सामने ही दे देंगे”. रावण अभिमान में चूर था और बोला “अच्छा इस कवच को पहनेगा वो मैं इसे अभी तोड देता हूँ.” रावण आगे बडा और उस कवच को उठाने की कोशिस करने लगा, लेकिन वो इतना भारी था कि रावण को उठाने में पसीना आ गया. द्वारपाल ने कटाक्ष किया लंकापति रावण, हमारे महाराज बलि का कवच तक उठाने में आपके माथे पर पसीना निकल आया है मुझे संदेह हो रहा है कि तुम महाराज बलि से कैसे लड पाओगे कोई बात नहीं कुछ ही समय की बात है और आप धैर्य रखें.

रावण मन में डर गया और बाद आता हूँ कहकर भाग निकला, वापस नहीं आया. रावण ने सभी देवताओं, यक्ष, किन्नर, गंधर्व आदि को युद्द में परास्त करके राक्षसों को अभय कर दिया और मानवों को वो पहले से ही सोचता था कि, वो क्या लडगें बेचारे सीधे साधे लोग है इसलिये पृथ्वी के अन्य भू भागों पर उसके राक्षस अपनी चला ही रहे थे.

यद्यपि शक्तिशाली राज्यों, जिनमें अयोध्या, मिथिला, कौशल जैसे अन्य राजा थे, वो बहुत उच्च कोटी के प्रतापी और सक्षम राज्य थे और कभी सीमा विस्तार के लिये युद्ध नहीं करते थे, ये राजा सन्मार्गी और नारायण भक्त थे, उनकी प्रजा भी सुखी संपन्न और उच्च कोटी की थी. महाराजा दशरथ तो इतने प्राक्रमी थे कि, देवराज इंद्र ने तक उनसे युद्ध में सहायता माँगी थी. राजा जनक इतने श्रेष्ठ राजा थे कि उन्हें प्रजा के, हित के कार्यो और संत सेवा में अपनी देह की सुध तक नहीं होती थी और इसलिये उनका नाम विदेह भी पड गया था। एक से बढकर एक ऋषी, महर्षी, मुनि जिनमें परशुराम, विस्वामित्र, बामदेव जैसे लोग इन राजाओं के दरबार में आते थे और इसी वजह से इनके राज्य को टेडी आँख देखने का साहस तीनों लोकों में स्वत: ही कोई नहीं कर सका.

एक प्रश्न उठता है कि रावण, सहस्त्रबाहु अर्जुन से, फिर बालि से मार खाया, फिर सुतल लोक में बलि के डर से भाग गया, अयोध्या, मिथिला, कौशल, वानरों के प्रदेश आदि उसके अधीन नहीं थे, फिर रावण त्रिलोक विजेता कैसे मान लिया गया? रावण ने ब्रह्मा जी से नाभी कुंड मे अमृत पाया इससे उसकी मृत्यु सिर्फ भगवान नारायण के अतिरिक्त किसी और से नहीं हो सकती है इस बात का उसको ज्ञान था, मन में ग्लानि थी कि, अगर-अमर हो जाता तो कितना अच्छा रहता क्युँकि उसका लक्ष वही था और उसके लिये वो प्रयत्नशील था। लेकिन सिर्फ अमर रहने से कोई बात नहीं बनती है बल, कौशल और शस्त्र भी चाहिये उसके लिये उसने तपस्या से बहुत कुछ पाया भी. उस वक्त रावण जैसे कई अन्य तपस्वी भी थे, राजा बलि, वानर प्रदेश का राजा बालि, बाणासुर आदि. रावण ने ब्रह्मा जी से वरदान पाने के बाद सोचा अब वो अमरता का वरदान पाने के लिये महादेव को ही प्रसन्न कर के रहेगा और वरदान ले के रहेगा. रावण ने भगवान भोले नाथ की तपस्या आरम्भ कर दी, वर्षों तक तपस्या की,

एक प्रश्न उठता है कि रावण, सहस्त्रबाहु अर्जुन से, फिर बालि से मार खाया, फिर सुतल लोक में बलि के डर से भाग गया, अयोध्या, मिथिला, कौशल, वानरों के प्रदेश आदि उसके अधीन नहीं थे, फिर रावण त्रिलोक विजेता कैसे मान लिया गया? रावण ने ब्रह्मा जी से नाभी कुंड मे अमृत पाया इससे उसकी मृत्यु सिर्फ भगवान नारायण के अतिरिक्त किसी और से नहीं हो सकती है इस बात का उसको ज्ञान था, मन में ग्लानि थी कि, अगर-अमर हो जाता तो कितना अच्छा रहता क्युँकि उसका लक्ष वही था और उसके लिये वो प्रयत्नशील था। लेकिन सिर्फ अमर रहने से कोई बात नहीं बनती है बल, कौशल और शस्त्र भी चाहिये उसके लिये उसने तपस्या से बहुत कुछ पाया भी. उस वक्त रावण जैसे कई अन्य तपस्वी भी थे, राजा बलि, वानर प्रदेश का राजा बालि, बाणासुर आदि. रावण ने ब्रह्मा जी से वरदान पाने के बाद सोचा अब वो अमरता का वरदान पाने के लिये महादेव को ही प्रसन्न कर के रहेगा और वरदान ले के रहेगा. रावण ने भगवान भोले नाथ की तपस्या आरम्भ कर दी, वर्षों तक तपस्या की, भोले नाथ प्रकट नहीं हुये, रावण ने सोचा भोलेनाथ जल्दी प्रसन्न होने वाले महादेव हैं और मुझसे ही लगता है अप्रसन्न हैं ये सोच कर उसने और कठोर तपस्या करना शुरु कर दिया, कभी निराहार रह कर तो कभी भगवान भोलेनाथ की सुदंर स्त्रोतों से वीणा वादन कर, लेकिन प्रभु पृकट नहीं हुए. रावण ने सोचा उसका जीवन ही बेकार है अगर वो महादेव को प्रसन्न न कर सका, महादेव जो शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं अपने भक्तों पर, और मैं ही उनको प्रसन्न न कर सका ये सोच कर आत्मग्लानि से भर गया. एक दिन वो पूजा में जब पुष्प चढाने लगा तो पुष्प कम पड गये, तब उसने पूजा को पूर्ण करने के लिये उसने एक-एक कर अपना मस्तक काट कर पुष्प की जगह चढाना शुरु कर दिया, ये सोच के कि जो अपने जीवन में महादेव को प्रसन्न नहीं कर सका तो उस जीने वाले को धिक्कार है.




छलिया वंचक धूर्त कपटी पापी दोषी दुष्टम बलवर दानव दसमुख ज्ञानी सुविज्ञ विदुषी प्रबुद्ध दैवज्ञ योग्य 
कुशाग्र मनस्वी  विवेकि अकड़ू दर्पी दम्भी मूरख मूढ़ दुर्बुद्धि 

दीप्त रिक्त 
लंका पर प्रतिघात होता है 
बलिष्ठ रावण भी रोता है। 

जब लंका में आग लगती है
सोने की लक्सा जलती है 
आये अनोखे एक वानर से  
प्रजा समूची डरती है 
हाहाकार नगर में होता है 

पापों का घड़ा 
रावण को नंदी ने रोका
रावण को हुआ क्रोध उत्पन्न
रावण सा नहीं हुआ कोई शिव भक्त
रावण का दम्भ

ब्राह्मण कुल मुनि पुलस्त्य का पौत्र 
विश्रस्वा का पुत्र शिव भक्त, महान राजनीतिज्ञ, 
महापराक्रमी योद्धा, अति बलवान, शास्त्रों का प्रखर ज्ञाता ,
प्रकांड विद्वान, पंडित, महाज्ञानी, वैभव शाली, सोने की लंका 
दस मस्तक की बुद्धि बीस भुजाओं का बल 
पांच भ्राता 
मंदोदरी मयदानव की पुत्री 

इसी अपराध के कारन
मारा गया था रावण
पत्नी की माना न भाई की
स्त्री का सम्मान ना किया
कर डाला स्त्री का हरण
इसी अपराध के कारन
मारा गया था रावण

रम्भा को लाया बलात वो
नलकुबेर से पाया श्राप वो
इन्द्रासन पर विजय प्राप्त की 
सियापति से लिया युद्ध ठान 
राम को समझा साधारण
इसी अपराध के कारन
मारा गया था रावण

मन के मेल का किया न क्षारण  

चापलूसों से घिरा ही रहता 
सिर उसका फिरा ही रहता 
विलासिता और भोग के आगे 
नित्य प्रति वो गिरा ही रहता 
मिथ्या का न किया निवारण
इसी अपराध के कारन
मारा गया था रावण

रावण में मायावी शक्ति थी
शिव की अपार भक्ति  थी
राक्षसी कर्मों से ग्रसित वह 
विलास से अनुरक्ति थी
लोलुपता किया था धारण 
इसी अपराध के कारन
मारा गया था रावण

ज्ञान विज्ञानं की हस्ती था वो 
भविष्य वक्त त्रिकालदर्शी था वह 
भोग विलास  स्वार्थी  

सामने जब यमदूत खड़ा होता है 
रावण भी रोटा है 

पुलस्त्य ऋषि के कुल में जन्म लिया
राक्षस हुआ  ब्राह्मणों के शाप के असर से
वर से
मायावी दुष्ट कुटिल भयंकर से
कैंप उठी थी धरती रावण के डर से
मय दानव ने विवाह किया
मंदोदरी सुन्दर से
ब्रह्मा से वर माँगा
मरे न किसी अन्य से सिवा नर वानर से


वानर भालू घुसे लंका में रावण मन में घबराने लगा
मन ही मन रो रहा मगर हँसता हो यूँ दिखने लगा
वानरों ने राक्षसों नाक कान काट आहत किया
राम से बैर ले  ज्यूँ  सूर्य को दीप दिखने लगा
दसों मुखों से बताने लगा
मंदोदरी ने बहुत समझाया
रावण की समझ कुछ न आया
समुद्र वन नीर नदी सबको बांध दिया
उनके हाथ कल कर्म जीव सभी हैं
उनसे क्षमा मांग जानकी को लौटा दीजिये
काल के वश जाने लगा

रावण का विलाप

हा अक्षय! मेरा लाल मरा,
मेरा लाल नहीं मेरे प्राण हरा,
उसे मार दिया, हनुमान अहा।
हा अक्षय! मेरा लाल मरा।

की धूम्राक्ष अकम्पन की हत्या,
एक वानर हो यह कृत्य किया, 
रावण निकला मन क्रोध भरा।
हा अक्षय! मेरा लाल मरा।

रावण डूबा था घमंड में,
षक्ति पास, प्रचंड लिये।
निज षौर्य, साहस से वह,
कितनों के मान खण्ड किये।
कर देगा उसके खण्ड खण्ड,
प्रतिषोध हेतु मुस्तण्ड चला।

वह बालक था, वह बालक था,
ना छोड़ूंगा, जो घालक था।
मुझे ज्ञात हुआ, मुझे ज्ञात हुआ,
जिसने मारा वह वानर था।
उसको हाथों में दूंगा मसल,
भरते हुये हुंकार चला।

वह वानर था, वह वानर था,
या था कोई महाषक्ति।
पूरी लंका को दिया जला,
जला डाला, लंका पूरी।
नहीं रह सकता प्राण सहित,
दिव्य रथ पर सवार बढ़ा।

आहत करता, आहत करता,
करता सेना को छिन्न भिन्न।
ललकार रहा वह बार बार,
दौड़े हनुमान होकर के खिन्न।
वानरवीर वह रोश भरा,
थप्पड़ का प्रहार जड़ा।

रावण बोला, रावण बोला,
तुम उत्तम, मेरे प्रतिद्वन्दी। 
सब वानरों के प्राण हरूं,
तुम संग ही मैं अभी अभी।
बाणों की आंधी सा वो चला,
सेना का बनकर काल चला।

तू गर्व भरा, तू गर्व भरा,
गरज रहा है बादल से।
पाया होगा वरदान अनेक,
भयमुक्त नहीं पर वानर से।
व्यर्थ मेरा पराक्रम है,
अब तक तू जिवित है खड़ा।

छाती में जड़ा, छाती में जड़ा,
कपि ने षक्ति भरा मुक्का।
चक्कर खा के गिरा रथ में,
और ताक रहा हक्का बक्का।
चोट खा व्याकुल होने पर,
असह्य पीड़ा से चीख पड़ा।

कांप गया, वह कांप गया,
आ गया हो जैसे कोई भूकंप।
बोले हनुमान रामचन्द्र से, 
आप ही दें अब इसे दण्ड। 
राम के बाणों के आघात से, 
होकर वह निस्तेज पड़ा।



अंगद की बात लगी न भली
गर्व में अँधा


ब्रह्मा का पड़पौत्र
पुलस्त्य विश्रवा का पुत्र

 राम के साथ रावण का नाम चलेगा
रामायण पद्मपुराण ग्रंथों में
रावण का नम्म मिलेगा
रावण एक बुरी आत्मा थी
अच्छाइयां भी काम न थीं
प्रकांड पंडित था पर कर्म शुद्ध नहीं था
पर  स्त्रियों का हरण



डरता है न  मरता है, रावण रोता है अवश्य
कुकर्मों का पछतावा, उसे भी होता है अवश्य
अपनी विलासिता के लिए साधन जुटाने में
भांति भांति के पापों को वह ढोता है अवश्य
राम नाम से धोता है अवश्य
कितना भी प्रताप अर्जित कर ले
अंततः कुल के नाम को डुबोता है अवश्य
खोता पापों को पिरोता
तंत्र मन्त्र का भी रावण चाहे हो धनी
अनेकों श्राप का शूल चुभोता है अवश्य


रावण तू अपनी रावणीयत को छोड़ दे
उच्च पुरुषार्थ करके भी पुरषोत्तम न बना
मानवीयत  खासियत

रावण हुआ प्रकांड पंडित, मगर क्या लाभ
महिमा को किया मंडित, मगर क्या लाभ
दुष्ट विचारों को रहा तू पाले अपने अंदर
दुष्टों को किया दण्डित, मगर क्या लाभ
जब अपना विवेक खोता है 
रावण भी रोता है 

नारी लोलुपता ने व्यभिचारी बना दिया
दुष्कर्मों ने दानव, दुराचारी बना दिया
विलास की पूर्ति की चिंता में 
स्वार्थ ने अत्याचारी बना दिया 

जब कोई नहीं साथ होता है
 रावण भी रोता है

दम्भ कर देता विलग
बल

कुशल राजनीतिज्ञ था वह 
वास्तुकला का मर्मज्ञ था वह 
इंद्रजाल तंत्र मन्त्र सम्मोहन
सबसे बड़ा शिव भक्त तह वह 

चारों वेदों का ज्ञाता था वह 
तेजस्वी 
महापराक्रमी
प्रतापी
आदर्श मर्यादा
परिजनों की रक्षा
कुशल शासक संपन्न प्रजा

एक अपराध सब पर भारी
हरण करना रावण का नारी

प्रकांड पंडित मगर अनैतिकता भरे
शिव का परम भक्त सत्कर्मों से परे
दम्भ अनेक बुराईयां धरे

पराक्रम में तो बिंदास था रावण
वासनाओं का दास था रावण
कन्याओं का हरण

सात्विकता को त्यागा
नैतिकता से भागा
इतना बड़ा ज्ञानी था तू
फिर तेरा विवेक क्यों न जागा

पुलस्त्य कुल का हो न अंत
विभीषण बन गया संत
रावण के कुल का नाश हुआ

रामेश्वरम में यज्ञ
शिव स्थापना करने के लिए
राम को याद आया, रावण
वृहस्पति आना न हुआ संभव
पंडित को किसे बुलाया जाये
सुग्रीव को लंका
पूजा के लिए बुलवाया रावण
पूजा में पत्नी का होना आवश्यक
संग सीता को लाया रावण
राम को शुभकामना



जो कार्य राम विरुद्ध करेगा, रोना ही होगा। 
जो धर्म से ही युद्ध करेगा रोना ही होगा। 
अपने स्वार्थ की खातिर बस 
निति मार्ग अवरुद्ध करेगा, रोना ही होगा। 
अपनी विलासिता की तृप्ति में लिप्त रहकर  
जो समाज को क्रुद्ध करेगा, रोना ही होगा। 
पुण्य को छोड़ पापों को जीवन में बोयेगा 
जो हृदय को ना शुद्ध करेगा, रोना ही होगा। 
लोभ लालसा मोह के जाल में फंसकर 
विवेक को अवरुद्ध करेगा, रोना ही होगा। 
वैभव से घर भरने को खिलवाड़ करेगा 
प्रकृति को जो क्रुद्ध करेगा, रोना ही होगा। 
वेद पुराण ज्ञान के सागर, तिरस्कार कर 
स्वयं को ना प्रबुद्ध करेगा, रोना ही होगा। 
अनिरुद्ध




ग्रंथों का निर्माता है तू
शिव के स्तोत्र नित गाता है तू
संधान
राम तक से लड़ जाता है तू
परिजनों का आश्रय दाता है तू
वेद विज्ञान का ज्ञाता है तू
फिर राक्षसों का क्यों विधाता है तू
अधिष्ठाता



रावण ने तो किया  था पाप
फिर वही क्यों करते हो आप
रोकने का यत्न नहीं दिखता
दिखावे का कर रहे अलाप

जो भी जन करता है पाप
भोगता वह अवश्य संताप
क्षणिक सुख भोग ले चाहे
अंततः करना होता विलाप




जन्म लेते ही विंहसा था
विश्श्र्वा
विप्रा शाप से राक्षस जनमा 

प्रताप भानु प्रतापी वीर राजा 
कई युद्ध जीता सातों द्वीपों को जीता 
चतुरंगिणी सेना 
प्रताप भानु के प्रताप से धरती कामधेनु 
प्रजा सुखी हो गयी 
मंत्री धरमरुचि की राय मान 
राजा गुरु देवता संत पितर ब्राह्मण की सेवा करता 
वेदों में बताये राजाओं के धर्म का पालन करता 
नाना बापीं कूप तड़ागा।  सुमन वाटिका सुन्दर बागा। १२८  
विप्रभवन सुरभवन सुहाए। तीरथ बड़ विचित्र बनाये। 
 


तपस्या में ऋषियों की सहायता में
राक्षसों का


सुडौल बदन बलवान है वीर है पर
बुद्धिमान प्रतापी
न मन वश में न इन्द्रियां

पर स्त्री हरण
वैभव का लोभी

दर्प

स्वर्ग तक सीढ़ी

हनुमान का बल देख कौतुक में था
जो समुद्र लाँघ गए
रावण नदी भी नहीं लाँघ सकता
बजरंगबली का बल देखता है।  रावण भी  

सूर्पनखा जब नाक कटाई 
रोते हुए सूर्पनखा आयी
लायी रावण की भी रुलाई
देख बहन की नाक कटी
जला आग प्रतिशोध के भाई 

दुखी बहुत हुआ वो कपटी
झूठी
देने चला संरक्षण
बिन देखे जाने रावण
बहन का दुराचरण
पुरे कुटुंब पर संकट लायी
रावण के पास  गयी रोटी नकटी

जन्म लिया जब धरती पर 
धरती कितनी रोई होगी
भविश के बारे सोच कर
मां कितनी रात न सोई होगी

टांसू से दुनिया न डूबे
च्ली गई द्वीप पर

पाप कितने तू बोयेगा 
बीस नयनों से झरेगा झरना
ज्ब जब तू रोयेगा

धनुश न उठा सका 
सहा घोर अपमान
कितनी रानियों को महल में छोड़
चला स्वयंबर में महान

कितनी है महान मनदोदरी
एक सौत रूलाकर रख देती 
त्ू सैकड़ों को झेलती 

नाक कटाई सूर्पणखा 
आई रावण को रूलाई

खर दूशण

बलि का वघ हुआ

ल्ंकिनी मरी


राम की सेना ने डाला लंका में डेरा

अक्षय

लंका जला

मेघनाद 

विभीशण

कुम्भकर्ण

लंका खाली चला आत्महत्या को रावण


खरदूषण

मारीच मरा

भाई मरा कुम्भकरण

पुत्र

विभीषण

प्रजा गयी राज गया

राक्षसी वृत्ति

धन की खातिर पापड़ बेलना होता 
भांति भांति के कष्ट झेलना होता 
जुटाए धन का उपयोग सभी करते 
किन्तु पापों को अकेले भोगना होता
आया धन जब खोता है, रावण भी रोता है। 


स्वर्ग तक सीढ़ी बनाया
पाप  का बोझ
चढाने न पाया
स्वर्ग पर ईश्वर का राज
रावण समझ न पाया


रावण यदि यह जान लेता 
विभीषण जाकर राज खोलेगा 
पहले ही शूली पर चढ़वा देता
मरने से पहले उसको ही मरवा देता
दीवारों में जड़वा देता

मैं  मैं कर के मर गया
वह अंतकाल में डर गया 
करनी इतनी बड़ी की मगर 
नाम बदनाम कर गया

इच्छाएं ऊँची

तांडव स्तोत्र
शिव का था भक्त परम
अर्चना में चरम
फिर भी न जाना मर्म
निभाया न तूने धरम
करम
नरम
पाले रखा विलासिता का भरम

रावण की बुराइयों का पुतला जलाते हैं
अच्छाइयों का बुत बनाते क्यों नहीं ?


सीता को हर के लाया, रावण का काल। 

सिर धरा राक्षसी माया, रावण का काल।  

पहुंचे जलधि पार, ले के वानरी सेना,  

राम को लंका बुलाया, रावण का काल। 

भेजे मैत्री सन्देश, लंकेश को राम,   

संधि प्रस्ताव ठुकराया, रावण का काल। 

दर्प में डूबा था वो, किसी की न माना

भ्रात को घर से भगाया, रावण का काल।   

मंदोदरी लाख मनायी, व्यर्थ मगर सब

मुखों को दसों खुलवाया, रावण का काल।  

नीति की बात चुभती, काँटों की भांति उसे,    

पूरे कुल को मरवाया, रावण का काल।   

किया था अमृत-पान, वर अमर होने का,   

नाभी का सुधा सुखाया, रावण का काल। 

 

मान्यता है कि एक बार रावण ने अपना बल दिखाने के लिए कैलाश पर्वत ही उठा लिया था और जब वह पूरे पर्वत को ही लंका ले जाने लगा तो उसका अहंकार तोड़ने के लिए भोलेनाथ ने अपने पैर के अंगूठे मात्र से कैलाश को दबाकर उसे स्थिर कर दिया. इससे रावण का हाथ पर्वत के नीचे दब गया और वह दर्द से चिल्ला उठा - 'शंकर शंकर' - जिसका मतलब था क्षमा करिए, क्षमा करिए और वह महादेव की स्तुति करने लगा. इस स्तुति को ही शिव तांडव स्तोत्र कहते हैं. कहा जाता है कि इस स्तोत्र से प्रसन्न होकर ही शिव जी ने लंकापति को 'रावण' नाम दिया था.
शिव भगवन
रखे जटा सघन   
जैसी कि वन 
जहाँ प्रवाहित गंग 
गले लिपटे भुजंग 
धरे विष हलाहल कंठ 
कर डमरू की डम डम डम 
करते तांडव प्रचंड 
हे प्रभु शिव शिवो शिवम् 
संग ढंग 
भगवान शंकर को खुश करने और उनकी कृपा पाने के लिए यह स्त्रोत अचूक है:
जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले गलेवलम्ब्यलम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम्‌।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं चकारचण्डताण्डवं तनोतु नः शिवो शिवम्‌ ॥1॥
अर्थात- जिन शिव जी की सघन, वनरूपी जटा से प्रवाहित होकर गंगा जी की धाराएं उनके कंठ को प्रक्षालित होती हैं, जिनके गले में बड़े एवं लंबे सर्पों की मालाएं लटक रहीं हैं, तथा जो शिव जी डम-डम डमरू बजा कर प्रचण्ड ताण्डव करते हैं, वे शिवजी हमारा कल्यान करें.

दशानन के दस शीश - मिथ्या, घृणा, लोभ,

मद, मत्सर, ईर्ष्या, काम, मोह, द्वेष, क्रोध।

कुचल के रख देता सभी को राम का नाम,

और मिटा देता है जीवन के सब क्षोभ।


रावण तो राम-मंदिर का विरोध करेगा।

निर्माण में नित खड़ा अवरोध करेगा।

रावण को डर है, जब राम के भक्त होंगे।

उसके काम में निश्चित, बाधक होंगे।

 

राम के आगे सीता का चीर कैसे हरेगा?

राम-नाम से रावण का कुनबा डरेगा।

रावण हनन को राम का नाम बहुत है 

रुई की भांति वह धू धू करके जलेगा  

औरों का माल छीन झपट कैसे खायेगा?

राम-राज्य में स्वर्ण महल कैसे बनाएगा?

उसका तो धन्धा ही चौपट हो जायेगा 

राम का नाम रावण को क्यों भायेगा ?

राम नाम का रावण विरोध करेगा।
भक्तों के समक्ष खड़ा अवरोध करेगा।
रावण को डर हैजब राम के भक्त होंगे।
उसके काम में निश्चितबाधक होंगे।

जीवित रहे राम का नाम, रावण क्यों चाहेगा !

धरती से हो पाप तमाम, रावण क्यों चाहेगा !

उसे तो भोग चाहिए, वैभव, विलास चाहिए,   

कोई धाम हो राम के नाम, रावण क्यों चाहेगा !

 

 

खुद के कार्य हों निर्वाध, रावण यही चाहता।

मलिन हो राम  का नाम, रावण यही चाहता।

दुनिया हो गयी राम-मय तो उसकी न चलेगी,

फैले उसी का ताम झाम, रावण यही चाहता।


दशानन के दस शीश - मिथ्याघृणालोभ,
मदमत्सरईर्ष्याकाममोहद्वेष, क्रोध।
कुचल के रख देता सभी को राम का नाम,
और मिटा देता है जीवन के सब क्षोभ।


लिपट लिपट लट में गंग 
वेग पूर्ण उठाती तरंग
मस्तक पर धधक धधक
प्रज्ज्वलित अग्नि शिखा 
लगाए हुएजो भभूति अंग 
लिपटे हुए जिनके कंठ 
विषधर भुजंग  
जटाकटाहसंभ्रमभ्रमन्निलिंपनिर्झरी विलोलवीचिवल्लरी विराजमानमूर्धनि।
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं ममं ॥2॥
अर्थात- जिन शिव जी के जटाओं में अतिवेग से विलास पूर्वक भ्रमण कर रही देवी गंगा की लहरे उनके शिश पर लहरा रहीं हैं, जिनके मस्तक पर अग्नि की प्रचण्ड ज्वालाएं धधक-धधक करके प्रज्जवलित हो रहीं हैं, उन बाल चंद्रमा से विभूषित शिवजी में मेरा अनुराग प्रतिक्षण बढ़ता रहे.
धराधरेंद्रनंदिनी विलासबन्धुबन्धुरस्फुरद्दिगंतसंतति प्रमोद मानमानसे।
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि क्वचिद्विगम्बरे मनोविनोदमेतु वस्तुनि ॥3॥
अर्थात- जो पर्वतराजसुता (पार्वती जी) के विलासमय रमणिय कटाक्षों में परम आनंदित चित्त रहते हैं, जिनके मस्तक में सम्पूर्ण सृष्टि एवं प्राणीगण वास करते हैं, तथा जिनके कृपादृष्टि मात्र से भक्तों की समस्त विपत्तियां दूर हो जाती हैं, ऐसे दिगम्बर (आकाश को वस्त्र समान धारण करने वाले) शिवजी की आराधना से मेरा चित्त सर्वदा आनंदित रहे.
जटाभुजंगपिंगलस्फुरत्फणामणिप्रभा कदंबकुंकुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे।
मदांधसिंधुरस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे मनोविनोदद्भुतं बिंभर्तुभूतभर्तरि ॥4॥
अर्थात- मैं उन शिव जी की भक्ति में आनंदित रहूं जो सभी प्राणियों के आधार एवं रक्षक हैं, जिनकी जाटाओं में लिपटे सर्पों के फन की मणियों का पीले वर्ण प्रभा-समुह रूप केसर प्रकाश सभी दिशाओं को प्रकाशित करता है और जो गजचर्म (हिरण की छाल) से विभुषित हैं.
सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर प्रसूनधूलिधोरणी विधूसरांघ्रिपीठभूः।
भुजंगराजमालयानिबद्धजाटजूटकः श्रियैचिरायजायतां चकोरबंधुशेखरः ॥5॥
अर्थात- जिन शिव जी के चरण इन्द्रादि देवताओं के मस्तक के फूलों की धूल से रंजित हैं (जिन्हें देवतागण अपने सर के फूल अर्पण करते हैं), जिनकी जटा पर लाल सर्प विराजमान है, वो चन्द्रशेखर हमें चिरकाल के लिए सम्पदा दें.
ललाटचत्वरज्वलद्धनंजयस्फुलिङ्गभा निपीतपंचसायकंनमन्निलिंपनायकम्‌।
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं महाकपालिसंपदे शिरोजटालमस्तुनः ॥6॥
अर्थात- जिन शिव जी ने इन्द्रादि देवताओं का गर्व दहन करते हुए, कामदेव को अपने विशाल मस्तक की अग्नि ज्वाला से भस्म कर दिया, तथा जो सभी देवों द्वारा पूज्य हैं, तथा चन्द्रमा और गंगा द्वारा सुशोभित हैं, वे मुझे सिद्धि प्रदान करें.
करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वलद्धनंजया धरीकृतप्रचंडपंचसायके।
धराधरेंद्रनंदिनीकुचाग्रचित्रपत्रकप्रकल्पनैकशिल्पिनी त्रिलोचनेरतिर्मम ॥7॥
अर्थात- जिनके मस्तक से निकली प्रचण्ड ज्वाला ने कामदेव को भस्म कर दिया तथा जो शिव, पार्वती जी के स्तन के अग्र भाग पर चित्रकारी करने में अति चतुर है (यहां पार्वती प्रकृति हैं, तथा चित्रकारी सृजन है), उन शिव जी में मेरी प्रीति अटल हो.
नवीनमेघमंडलीनिरुद्धदुर्धरस्फुरत्कुहुनिशीथनीतमः प्रबद्धबद्धकन्धरः।
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिंधुरः कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥8॥
अर्थात- जिनका कण्ठ नवीन मेघों की घटाओं से परिपूर्ण आमवस्या की रात्रि के समान काला है, जो कि गज-चर्म, गंगा एवं बाल-चन्द्र द्वारा शोभायमान हैं तथा जो कि जगत का बोझ धारण करने वाले हैं, वे शिव जी हमे सभी प्रकार की सम्पन्नता प्रदान करें.
प्रफुल्लनीलपंकजप्रपंचकालिमप्रभा विडंबि कंठकंध रारुचि प्रबंधकंधरम्‌।
स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥9॥
अर्थात- जिनका कण्ठ और कंधा पूर्ण खिले हुए नीलकमल की फैली हुई सुंदर श्याम प्रभा से विभूषित है, जो कामदेव और त्रिपुरासुर के विनाशक, संसार के दु:खों को काटने वाले, दक्षयज्ञ विनाशक, गजासुर एवं अंधकासुर के संहारक हैं तथा जो मृत्यू को वश में करने वाले हैं, मैं उन शिव जी को भजता हूं.
अखर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्‌।
स्मरांतकं पुरातकं भावंतकं मखांतकं गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे ॥10॥
अर्थात- जो कल्यानमय, अविनाशी, समस्त कलाओं के रस का अस्वादन करने वाले हैं, जो कामदेव को भस्म करने वाले हैं, त्रिपुरासुर, गजासुर, अंधकासुर के सहांरक, दक्ष यज्ञ विध्वंसक तथा स्वयं यमराज के लिए भी यमस्वरूप हैं, मैं उन शिव जी को भजता हूं.
जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजंगमस्फुरद्धगद्धगद्विनिर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्।
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदंगतुंगमंगलध्वनिक्रमप्रवर्तित: प्रचण्ड ताण्डवः शिवः ॥11॥
अर्थात- अतयंत वेग से भ्रमण कर रहे सर्पों के फूफकार से क्रमश: ललाट में बढ़ी हूई प्रचण्ड अग्नि के मध्य मृदंग की मंगलकारी उच्च धिम-धिम की ध्वनि के साथ ताण्डव नृत्य में लीन शिव जी सर्व प्रकार सुशोभित हो रहे हैं.
दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंगमौक्तिकमस्रजोर्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुह्रद्विपक्षपक्षयोः।
तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे ॥12॥
अर्थात- कठोर पत्थर एवं कोमल शय्या, सर्प एवं मोतियों की मालाओं, बहुमूल्य रत्न एवं मिट्टी के टुकडों, शत्रू एवं मित्रों, राजाओं तथा प्रजाओं, तिनकों तथा कमलों पर सामान दृष्टि रखने वाले शिव को मैं भजता हूं.
कदा निलिंपनिर्झरी निकुञ्जकोटरे वसन्‌ विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्‌।
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन्‌ कदा सुखी भवाम्यहम्‌ ॥13॥
अर्थात- कब मैं गंगा जी के कछारगुञ में निवास करते हुए, निष्कपट हो, सिर पर अंजली धारण कर चंचल नेत्रों तथा ललाट वाले शिव जी का मंत्रोच्चार करते हुए अक्षय सुख को प्राप्त करूंगा.
निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः।
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः ॥14॥
अर्थात- देवांगनाओं के सिर में गूंथे पुष्पों की मालाओं के झड़ते हुए सुगंधमय पराग से मनोहर, परम शोभा के धाम महादेवजी के अंगों की सुंदरताएं परमानंद युक्त हमारे मन की प्रसन्नता को सर्वदा बढ़ाती रहें.
प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना।
विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम्‌ ॥15॥
अर्थात- प्रचण्ड बड़वानल की भांति पापों को भस्म करने में स्त्री स्वरूपिणी अणिमादिक अष्ट महासिद्धियों तथा चंचल नेत्रों वाली देवकन्याओं से शिव विवाह समय में गान की गई मंगलध्वनि सब मंत्रों में परमश्रेष्ठ शिव मंत्र से पूरित, सांसारिक दुःखों को नष्ट कर विजय पाएं.
इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं पठन्स्मरन्‌ ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्‌।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथागतिं विमोहनं हि देहनां सुशंकरस्य चिंतनम् ॥16॥
अर्थात- इस उत्त्मोत्त्म शिव ताण्डव स्त्रोत को नित्य पढ़ने या सुनने मात्र से प्राणी पवित्र हो, परमगुरू शिव में स्थापित हो जाता है तथा सभी प्रकार के भ्रमों से मुक्त हो जाता है.
पूजावसानसमये दशवक्रत्रगीतं यः शम्भूपूजनपरम् पठति प्रदोषे।
तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरंगयुक्तां लक्ष्मी सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥17॥
अर्थात- प्रात: शिवपुजन के अंत में इस रावणकृत शिव ताण्डव स्तोत्र के गान से लक्ष्मी स्थिर रहती हैं तथा भक्त रथ, गज, घोड़ा आदि संपदा से सर्वदा युक्त रहता है.